गणेश वडंद्रे के खेत पर, कपास के पौधों के हर डोडे पर बने काले धब्बे ने ‘सफेद सोने’ पर काम करने वाले वैज्ञानिकों को एक संदेश दिया: जाओ और एक नया रोधक खोजो।

“वे अंदर जाने के रास्ते हैं,” पांच एकड़ के किसान वडंद्रे ने कहा, जिनका वर्धा जिले के आमगांव (खुर्द) में काफ़ी सम्मान किया जाता है। उन्होंने आगे कहा कि कीड़ा, इन्हीं रास्तों से डोडे के अंदर गया होगा।

“अगर हम इसे तोड़कर खोलते हैं, तो आपको एक गुलाबी-कीड़ा दिखाई देगा, जो इसे भीतर से खा रहा है,” उन्होंने घबराहट और गुस्से से कहा। उन्होंने डोडे को जैसे ही तोड़कर खोला, एक सेंटीमीटर से भी कम लंबा गुलाबी रंग का एक कीड़ा, घूमते हुए जागा, मानो ‘हाय’ कह रहा हो। इसने रूई का सफेद फाहा बनने से पहले ही, डोडे को खाकर बेकार कर दिया था।

“एक कीड़ा हज़ारों अंडे देता है और कुछ ही दिनों में लाखों कीड़े पैदा कर देता है,” 42 साल के वडंद्रे ने तब कहा था, जब मैंने पहली बार नवंबर 2017 में उनसे मुलाकात की थी।

कीड़ा चूंकि डोडे के अंदर होता है, इसलिए किसान तब तक छिपी हुई क्षति का पता नहीं लगा सकते जब तक कि वह डोडा फट ना जाए। यह फसल की कटाई के दौरान और बाजार के प्रांगड़ में अचानक झटका दे सकता है, जब कीड़ों से क्षतिग्रस्त कपास की बहुत कम क़ीमत लगाई जाए।

वडंद्रे की कहानी पूरे महाराष्ट्र के कपास उत्पादकों की स्थिति बता रही थी, विशेष रूप से पश्चिमी विदर्भ के कपास बेल्ट की, 2017-18 की सर्दियों के दौरान, जब फसल की कटाई चरम पर होती है। इस क्षेत्र में, कपास आमतौर पर जुलाई और अगस्त के बीच लगाया जाता है, और अक्टूबर से मार्च तक काटा जाता है।

गुलाबी-कीडों की सेना ने कपास के कई हेक्टेयर खेत तबाह कर दिये। ऐसी तबाही 30 वर्षों में देखने को नहीं मिली थी। वडंद्रे के आस-पास के खेत गुलाबी-कीड़ों के हमले की कहानी बयान कर रहे हैं: काले डोडे, शिथिल और दागदार, खराब गुणवत्ता वाले सूखे काले फाहा में अंकुरित होने वाले जिनका कोई मूल्य नहीं।

यही वह कीड़ा था जिससे परेशान होकर महाराष्ट्र भर के किसानों ने, अपनी कपास की फसल को बचाने के लिए, जुलाई से नवंबर 2017 तक भारी मात्रा में घातक कीटनाशकों का छिड़काव करना शुरू किया, हालांकि उन्हें पता था कि यह गुलाबी कीड़ों को समाप्त नहीं कर पाएगा। (देखें घातक कीट, घातक छिड़काव )

“इसके लिए कोई भी कीटनाशक उपयोगी नहीं है,” वडंद्रे ने कहा। “यह इतना घातक है। अब बीटी-कॉटन का क्या फायदा है?”

A man in cotton farm
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a man showing pest-infested boll of cotton
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आमगांव (खुर्द) के गणेश वडंद्रे अपने खेत पर कीट-संक्रमित डोडे की जांच कर रहे हैं: ‘इसके लिए कोई भी कीटनाशक उपयोगी नहीं है। यह इतना घातक है। अब बीटी-कॉटन का क्या फ़ायदा है?’

वडंद्रे अपने कपास के एक एकड़ खेत में कुएं से सिंचाई करके, औसतन 15 क्विंटल फसल प्राप्त कर सकते थे – लेकिन इस बार, उनकी उपज पांच क्विंटल घट गई थी। वडंद्रे का अनुमान है कि प्रति एकड़ उन्हें कम से कम 50,000 रुपये क घाटा हुआ – जो कि उनके लिए एक बहुत बड़ी राशि है।

गांव के जो खेत वर्षा पर निर्भर हैं और जिनकी सिंचाई ठीक से नहीं हो पाई थी, उनसे किसान इस मौसम में तीन क्विंटल कपास भी नहीं काट सके। राज्य सरकार ने कुछ मुआवजे की घोषणा की है - लगभग 10,000 रुपये प्रति हेक्टेयर, अधिकतम दो हेक्टेयर के लिए। अगर वडंद्रे क्वालीफाई करते हैं, तो उन्हें थोड़ी राहत मिल सकती है।

नवंबर के आसपास और फिर फरवरी-मार्च में (राज्य के राजस्व और कृषि विभागों के) ग्राम तलाठियों और कृषि सेवकों द्वारा किए गए फसलों के सर्वेक्षण के आधार पर अनुमान लगाया गया है कि राज्य में कपास के 42 लाख हेक्टेयर में से 80 प्रतिशत से अधिक खेत गुलाबी-कीड़ों से संक्रमित हैं। हर एक किसान ने कथित रूप से अपनी खड़ी फसल का 33 से लेकर 50 प्रतिशत तक खो दिया है।

जनवरी 2018 में, महाराष्ट्र के कृषि विभाग ने, कीटों से होने वाले विनाश को स्वीकार करते हुए, कपास उत्पादन और गठ्ठों में 40 प्रतिशत की गिरावट की भविष्यवाणी की। राज्य में प्रतिवर्ष औसतन 90 लाख कपास के गठ्ठों (172 किलो फाहा प्रति गठ्ठा) का उत्पादन होता है। एक क्विंटल कपास में 34 किलो रूई, 65 किलो बीज (जिसे तेल निकालने और उसके बाद मवेशी-चारा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है) और कुछ प्रतिशत गंदगी या कचरा होता है। मार्च 2018 में, विदर्भ के बाजारों में एक क्विंटल कपास का मूल्य था 4,800-5,000 रुपये।

वर्ष 2017-18 में भारत की लगभग 130 लाख हेक्टेयर भूमि पर कपास है, और राज्यों की रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि गुलाबी-कीड़े का खतरा महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में व्यापक रूप से फैला हुआ है। गुजरात, जिसे दो साल पहले इस कीड़े ने परेशान किया था, ने कपास की शुरुआती प्रजातियों को लगाकर इस समस्या का आंशिक रूप से समाधान निकाला है, ताकि सर्दी शुरू होने से पहले ही अधिकतर फसल की कटाई की जा सके, जब कीड़ों की संख्या कई गुना बढ़ जाती है।

भारत सरकार के कृषि मंत्रालय ने समस्या को स्वीकार तो किया है, लेकिन महाराष्ट्र और अन्य राज्यों से बीटी-कॉटन को डी-नोटिफाई करने की मांग को खारिज कर दिया है - यह एक ऐसा कदम है जो नियमित कपास के लिए अपनी स्थिति बदल देगा क्योंकि बीटी की प्रभावकारिता समाप्त हो चुकी है। (यह बीज की कीमतों, और बीज कंपनियों की रॉयल्टी तथा मुनाफे को प्रभावित करेगा, जिसके बारे में PARI पर एक और स्टोरी की जाएगी।) इसके बजाय, जुलाई 2017 में, केंद्र ने सभी कपास उत्पादक राज्यों को “विभिन्न हितधारकों को शामिल करके” अपने खतरे से खुद ही निपटने के लिए कहा।

गुलाबी-कीड़ा की वापसी

गुलाबी-कीड़े की वापसी ने पहली बार खतरे की घंटी 2015 में बजाई। उस वर्ष भारतीय कपास अनुसंधान प्रतिष्ठान, आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) बीटी-कॉटन प्रौद्योगिकी के “टूटने” से बहुत चिंतित था। गुजरात और महाराष्ट्र सहित सभी प्रमुख कपास उत्पादक राज्यों से फसलों पर गुलाबी कीड़े की वापसी की रिपोर्ट आई थी।

हालांकि गुलाबी कीड़ा पहली बार 2010 में, बीटी-कॉटन पर छिटपुट रूप से दिखा था, लेकिन नवंबर 2015 में गुजरात के किसानों ने अपनी कपास की फसल पर बड़े पैमाने पर कीट-संक्रमण की सूचना दी थी। डोडे को अंदर से खाने वाला एक इंच लंबा कीड़ा पूरी तरह स्वस्थ दिख रहा था, जो इस शक्तिशाली और महंगे जीएम कपास के असफल होने का संकेत है – जबकि उसे इसी कीड़े के संक्रमण से बचाने के लिए तैयार किया गया था।

नवंबर 2015 के अंतिम सप्ताह में, गुजरात के भावनगर जिले की एक किसान ने अपने खेत से कपास के कुछ डोडे तोड़े और उन्हें कपास विशेषज्ञों की एक टीम के सामने खोला जो इसे देखने के लिए वहां मौजूद थी। “वह बहुत गुस्से में थी,” उस टीम का नेतृत्व करने वाले प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. केशव क्रान्थि ने बताया, जब मैंने फरवरी 2016 में उनका साक्षात्कार लिया था। डॉ. क्रान्थि तब देश के सर्वोच्च केंद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान (सीआईसीआर), नागपुर के निदेशक थे, और वर्तमान में वाशिंगटन स्थित अंतर्राष्ट्रीय कपास सलाहकार समिति के निदेशक (तकनीकी) हैं।

किसान का गुस्सा उनके आसन्न नुकसान की वजह से था: छोटे लेकिन खतरनाक कीटों ने उनकी कपास की उपज के साथ-साथ उसकी गुणवत्ता भी खत्म कर दी थी। लेकिन वैज्ञानिक, जो यह देखने के लिए व्याकुल थे कि गुलाबी रंग के कीड़े कपास के हरे डोडे को अंदर से कैसे खा गए, उससे परे कारणों से चिंतित थे।

Farmer spraying pesticide in the cotton farm
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The worm on the cotton ball
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कीटों की भारी मात्रा में वापसी ने पिछले साल घातक कीटनाशकों के छिड़काव के लिए प्रेरित किया था। दाएं: कीड़ेदार पत्ते कपास के डोडे पर विनाशकारी निशान की कहानी बयान कर रहे हैं

पेक्टिनोफोरा गॉसिपिएला (सॉन्डर्स), जो गुलाबी कीड़ा के नाम से मशहूर है, ने तीन दशकों बाद प्रतिशोध के साथ भारत में वापसी की थी। यह सर्व-शक्तिमान दूसरी पीढ़ी के जीएम कपास संकर, बोलगार्ड-द्वितीय बीटी-कॉटन डोडे की दावत उड़ा रहा था, जिसे इस कीड़े से बचाव के लिए तैयार किया गया था। यह एक संकेत भी था, जैसा कि क्रान्थि ने आशंका जताई थी, कि शायद अमेरिकी बोलवॉर्म (इसके पूर्ववर्ती के कारण यह नाम पड़ा) भी अंततः लौट सकता है (हालांकि, अभी तक लौटा नहीं है)।

गुलाबी कीड़ा (जिसे सीआईसीआर और कपास शोधकर्ताओं ने भारत-पाकिस्तान मूल का माना है) और अमेरिकी बोलवॉर्म सबसे घातक कीटों में से थे, जिन्होंने 1970 और 1980 के दशक में भारत के कपास किसानों को बहुत परेशान किया। इन कीटों के कारण 1990 के दशक तक, उच्च उपज देने वाले संकर बीजों के लिए नए कीटनाशक लाए गए थे। 1990 के दशक के उत्तरार्ध में, संकर बीजों में बीटी जीन के साथ जब बीटी-कॉटन को भारत में शुरू किया गया था - तो यह दोनों प्रकार के कीटों का जवाब माना जाता था।

सीआईसीआर के ज़मीनी अध्ययनों से पता चला कि 2015-16 में, कपास की फसल के एकड़-दर-एकड़ खेत गुलाबी कीड़ों से दुबारा संक्रमित हो गए और उपज को लगभग 7-8 प्रतिशत कम कर दिया।

गुलाबी कीड़ों का लार्वा कुछ ही फसलों को खाता है जैसे कपास, भिंडी, अड़हुल और पटसन। यह फूलों, नए डोडों, कक्षों, डंठल और नई पत्तियों के अंदर अंडे देता है। युवा लार्वा, अंडे देने के दो दिनों के भीतर फूलों के अंडाशय या युवा डोडों में घुस जाते हैं। लार्वा 3-4 दिनों में गुलाबी हो जाते हैं और उनका रंग उनके द्वारा खाए गए भोजन पर निर्भर करता है - परिपक्व बीज खाने से गहरा गुलाबी रंग। संक्रमित डोडे या तो समय से पहले खुल जाते हैं या फिर सड़ जाते हैं। फाइबर की गुणवत्ता, जैसे कि उसकी लंबाई और ताकत, कम हो जाती है। संक्रमित डोडों वाले कपास के फाहा में एक माध्यमिक कवक संक्रमण भी हो सकता है।

यह कीट कपास द्वारा बाजार के प्रांगड़ तक ले जाए गए बीज से फैलता है। गुलाबी कीड़ा आम तौर पर सर्दियों की शुरुआत के साथ आता है और जब तक फूल और डोडे उपलब्ध होते हैं, तब तक फसल पर जीवित रहता है। लंबी अवधि की कपास, कीट को लंबे समय तक कई चक्रों में फलने-फूलने की अनुमति देती है, जिससे बाद की फसल भी प्रभावित होती है। मेज़बान फसल की अनुपस्थिति में, यह कीट आनुवंशिक रूप से हाइबरनेट या डायपॉज़ के लिए अनुकूल है; यह अगले सीजन तक, 6-8 महीनों के लिए सुप्त होने की अनुमति देता है।

चिंता और कोई विकल्प नहीं

सीआईसीआर की इस रिपोर्ट के बाद कि गुलाबी कीड़े वापस आ चुके हैं, मई 2016 में देश के दो मुख्य कृषि और विज्ञान अनुसंधान संस्थानों- भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) और भारतीय वैज्ञानिक अनुसंधान परिषद (आईसीएसआर) की नई दिल्ली में होने वाली दो उच्च स्तरीय बैठकों में यह चिंता स्पष्ट दिखाई दे रही थी। अधिकारियों ने चर्चा की कि क्या जीएम फसलों पर सार्वजनिक क्षेत्र की कोई भी परियोजना जल्द ही विकल्प के रूप में प्रदान की जा सकती है।

“इसमें कोई शक नहीं है कि गुलाबी कीड़े वापस आ गए हैं,” डॉ. क्रान्थि ने कॉटन एसोसिएशन ऑफ इंडिया के एक प्रकाशन, कॉटन स्टैटिस्टिक्स एंड न्यूज़ , में 2016 के एक लेख में कहा। ‘हम 2020 तक बीटी-कॉटन की बोलवॉर्म को कंट्रोल करने की शक्ति को कितना बेहतर बनाए रख सकते हैं,’ उन्होंने लिखा।

कोई अन्य नई जीएम कपास तकनीक - भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र या निजी क्षेत्र द्वारा - परीक्षणों के बाद वाणिज्यिक अनुमोदन के लिए 2020 तक लंबित नहीं है। जीएम बीज के बाजारों में सार्वजनिक क्षेत्र की अभी तक कोई उपस्थिति नहीं है, हालांकि कुछ कृषि संस्थान मक्का, सोयाबीन, बैगन और धान सहित विभिन्न फसलों पर जीएम अनुसंधान का काम कर रहे हैं।

आईसीएआर-आईसीएसआर बैठकों में, वैज्ञानिकों ने गुलाबी कीड़े को नियंत्रित करने के विकल्पों पर विचार किया। “भारत के लिए सबसे लंबी अवधि की बेहतर रणनीति है अल्पकालिक बीटी-कॉटन हाइब्रिड्स या किस्में उगाना जो जनवरी से आगे नहीं बढ़ती हैं,” क्रान्थि ने 2016 में इस रिपोर्टर से कहा था। इससे कीड़े मरेंगे, क्योंकि वे अधिकतर सर्दियों में कपास पर हमला करते हैं। लेकिन भारत की ज्यादातर बीज कंपनियां लंबी अवधि तक बेहतर प्रदर्शन करने वाली बीटी-हाइब्रिड का उत्पादन करती हैं।

और उस वर्ष, फसल पर हमले की तीव्रता 2017-18 से कम थी।

Rotten cotton on the tree
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2017-18 की सर्दियों में कटाई के दौरान कपास के शिथिल पौधे और घिसे हुए डोडे, जब वडंद्रे को एक भरपूर उपज की उम्मीद थी लेकिन मिले गुलाबी कीड़े

बीटी-कॉटन की असफलता

“जिस तकनीक [बीटी-कॉटन या BG-I और उसकी दूसरी पीढ़ी BG-II] पर लोग बहुत ज्यादा इतरा रहे थे, वह असफल हो चुकी है,” क्रान्थि ने 2016 में मुझसे कहा था। “इसका मतलब है कि किसानों को अब [जीएम बीजों में] कम क्षमता वाले BG-I और BG-II तकनीकों को समायोजित करना होगा तथा अन्य कीटों के एक सेट को छोड़कर, कीड़ों को नियंत्रित करने के लिए कीटनाशकों का उपयोग करने की ओर वापस जाना होगा।”

बीटी-कॉटन को यह नाम बेसिलस थुरिंजीनेसिस से मिला है, जो मिट्टी में रहने वाला एक जीवाणु है। बीटी बीज में जीवाणु से व्युत्पन्न क्राई (क्रिस्टल) जीन होते हैं और ये बोलवॉर्म से सुरक्षा प्रदान करने के लिए कपास के पौधों के जीनोम (कोशिका की आनुवंशिक सामग्री) में डाले जाते हैं।

बीटी-कॉटन को बोलवॉर्म को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया था। लेकिन किसानों को अब बीटी-कॉटन के खेतों में भी ये कीड़े मिलेंगे, क्रान्थि ने उद्योग पत्रिकाओं में और अपने स्वयं के सीआईसीआर ब्लॉग पर लगातार कई निबंधों में लिखा। उस समय, संभावित तबाही को लेकर न तो आईसीएआर सतर्क दिखा और न ही केंद्रीय कृषि मंत्रालय। राज्य और केंद्र सरकारें तभी से गुलाबी कीड़े की तबाही के बारे में जानती हैं, लेकिन इसका समाधान नहीं निकाला गया है।

अमेरिकी बीज जैव प्रौद्योगिकी बहुराष्ट्रीय मोनसेंटो का भारत के बीटी-कॉटन बीज बाजार पर एकाधिकार है। भारत सरकार ने 2002-03 में बीटी-कॉटन जारी करने और उसकी बिक्री को मंजूरी दी थी। प्रौद्योगिकी प्रदाता मोनसेंटो ने, बेची गई बीज की प्रत्येक थैली पर लगभग 20 प्रतिशत रॉयल्टी के साथ भारतीय बीज कंपनियों को ‘प्रौद्योगिकी हस्तांतरित की’। प्रत्यक्ष उद्देश्य कीटनाशकों के उपयोग को कम करना और कपास की उत्पादकता में वृद्धि करना था - जीएम तकनीक को दोनों उद्देश्यों के लिए रामबाण के रूप में बढ़ावा दिया गया था।

पहले वर्ष में, बीटी-कॉटन संकर बीज के 400 ग्राम के थैले की क़ीमत 1,800 रुपये थी। इसके बाद, केंद्र और राज्य सरकारों ने रॉयल्टी या विशेषता मूल्य और फिर बीटी-कॉटन बीज की क़ीमत को नियंत्रित करने के लिए हस्तक्षेप किया। फिर भी, बीज बाजार पर्यवेक्षकों के अनुसार, शुरुआती वर्षों में जबकि 400 ग्राम बीटी-कॉटन बीज वाले थैले की क़ीमत लगभग 1,000 रुपये हो गई थी, मोनसेंटो की रॉयल्टी खुदरा मूल्य का 20 प्रतिशत बनी रही। भारतीय बीटी-कॉटन बीज बाजार की क़ीमत 4,800 करोड़ रुपये आंकी गई है, डॉ. क्रान्थि ने 2016 में लिखा था।

बीटी-कॉटन का वैश्विक कारोबार 226 लाख हेक्टेयर में फैला हुआ है, जिसमें से केवल 160 लाख हेक्टेयर निजी प्रौद्योगिकी प्रदाताओं के लिए खुला है। 2014-15 में, भारत में बीटी-कॉटन ने 115 लाख हेक्टेयर पर कब्जा कर लिया। 2006-07 में, मोनसेंटो ने BG-II संकर जारी किया, यह कहते हुए कि नई तकनीक अधिक शक्तिशाली, अधिक टिकाऊ है। इसने धीरे-धीरे BG-I की जगह ले ली। और अब तक, सरकारी अनुमानों के अनुसार, BG-II संकर का देश में कपास के लगभग 130 लाख हेक्टेयर खेत के 90 प्रतिशत से अधिक पर कब्जा है।

बोलगार्ड BG-II तकनीक, जिसके अंतर्गत कपास के पौधों में बैसिलस थुरिंजिनेसिस से Cry1Ac और Cry2Ab जीन का परिचय कराया गया था, का दावा है कि यह तीन कीटों के खिलाफ प्रतिरोध का निर्माण करेगा: अमेरिकन बोलवॉर्म (हेलिकोवर्पा आर्मिगेरा), गुलाबी कीड़े और चित्तीदार कीड़े (एरियस विट्टेला)। पहली पीढ़ी के संकर, या बीटी-कॉटन में, बीज में केवल एक Cry1Ac जीन होता था।

डॉ. क्रान्थि ने एक अन्य निबंध में लिखा, पारिस्थितिकी और पर्यावरण के अनुरूप भारत में बीटी तकनीक के स्थायी उपयोग के लिए कोई रोडमैप नहीं है। पर्यावरण मंत्रालय की जेनेटिक इंजीनियरिंग अनुमोदन समिति द्वारा, कम से कम छह अलग-अलग बीटी-घटनाओं को अनुमोदित किया गया था, उनके स्थायित्व के लिए घटना-विशिष्ट कोई योजना तैयार किए बगैर।

जीवाणु बेसिलस थुरिंजिनेसिस में, जीन एक प्रोटीन तैयार करता है जो बोलवॉर्म प्रतिरोधी विष का काम करता है। वैज्ञानिक जीन निर्माण का विकास करते हैं जिन्हें कपास के बीज में स्थानांतरित किया जा सकता है, ताकि पौधे बोलवॉर्म का विरोध कर सकें। यही जीएम कपास है। जब इस तरह का जीन निर्माण, पौधे के जीनोम के गुणसूत्र पर अपना स्थान लेता है, तो इसे एक ‘घटना’ कहा जाता है।

लेकिन प्रतिरोध मुद्दों को उजागर करने के बावजूद चेतावनी को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया गया, क्रान्थि ने लिखा। प्रतिरोध एक विकासवादी प्रक्रिया है। कृषि में जब पहले की प्रभावी तकनीकें लक्ष्य कीट को नियंत्रित करना बंद कर देती हैं, तो कहा जाता है कि कीट प्रतिरोध विकसित हो गया है । लेकिन, उन्होंने लिखा, भारत में निजी कंपनियों द्वारा एक हज़ार से अधिक प्रकार के संकर बीटी-कॉटन - अपने स्वयं के बीजों के साथ बीटी घटनाओं को पार करके - केवल चार से पांच वर्षों के भीतर अनुमोदित कर दिये गए, जिससे कृषि-विज्ञान और कीट-प्रबंधन में अराजकता फैल गई। परिणामस्वरूप, कीटों के प्रबंधन में कपास की खेती करने वाले भारतीय किसानों की अक्षमता बढ़ती रहेगी।

Women working in cotton farm
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A man with cotton in hand
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वडंद्रे के कपास के खेत पर काम करने वाले मज़दूरों ने कहा कि गुलाबी-कीड़ों के प्रकोप ने डोडे से रूई के फाहा को निकालना मुश्किल बना दिया है , और गुणवत्ता भी खराब है

वर्ष 2017 में, भारत में हर्बिसाइड-टॉलेरैंट (एचटी) कपास के बीज बड़े पैमाने पर रोपे गए। एचटी-कपास मोनसेंटो का नया कपास बीज है। सरकार द्वारा वाणिज्यिक बिक्री के लिए इसे अभी तक मंजूरी नहीं दी गई है, लेकिन बीज कंपनियों और अपंजीकृत फर्मों ने पहले ही किसानों को ये बीज बेच दिये हैं। हालांकि, एचटी-कपास के बीज बोलवॉर्म या अन्य कीटों के लिए मारक नहीं हैं। इस तरह के बीजों से उगने वाला पौधा कपास के पौधों को प्रभावित किए बिना, खरपतवार और जंगली जड़ी बूटियों को समाप्त करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले रसायनों का विरोध करने वाला होता है।

अब, 2018 में, डॉ. क्रान्थि की चेतावनी सच हो गई है। गुजरात से जब 2010 में गुलाबी कीड़ों के संक्रमण की खबर पहली बार सामने आई, तो उस समय यह बहुत छोटे इलाके में और बीजी-प्रथम कॉटन पर था। 2012 और 2014 के बीच, यह BG-II पर एक बड़े क्षेत्र में फैल गया।

2015-16 के सीज़न में, सीआईसीआर द्वारा किए गए सर्वेक्षणों से पता चला कि BG-II पर गुलाबी बोलवर्म के लार्वा का अस्तित्व पूरे गुजरात में काफी अधिक था और कीट ने Cry1Ac, Cry2Ab, और Cry1Ac+Cry2Ab (तीन अलग-अलग प्रजातियां) के लिए प्रतिरोध विकसित कर लिया था, विशेष रूप से अमरेली और भावनगर जिलों में।

किसान अन्य कीटों, मुख्य रूप से चूसने वाले कीटों के अलावा गुलाबी कीड़ों से बचने के लिए कीटनाशकों का उपयोग पहले से ही कर रहे थे। दिसंबर 2015 में सीआईसीआर के व्यापक ज़मीनी सर्वेक्षणों के अनुसार, नुकसान दूसरी और तीसरी बार तोड़ने के समय हरे रंग के डोडों में अधिक था – किसानों द्वारा डोडे से सफेद कपास तब निकाले जाते हैं जब उनके अंदर चार क्रम में फूल आते हैं, कभी-कभी पांच महीने में, अक्टूबर से मार्च तक।

सीआईसीआर के अध्ययनों में गुलाबी कीड़ों की वापसी और BG-II की विफलता के कई कारक सामने आए। जैसे कि लंबी अवधि के संकरों की खेती, जो गुलाबी कीड़ों की निरंतर मेज़बानी का काम करती है।

डॉ. क्रान्थि का कहना है कि भारत में बीटी-कॉटन को खुले परागण वाली प्रजातियों (या सीधी रेखा वाले देसी कपास) में छोड़ा जाना चाहिए था, संकर में नहीं। भारत एकमात्र ऐसा देश है जिसने बीटी जीन को सीधी रेखा के बजाय संकर प्रजातियों में लगाने की अनुमति दी है - किसानों को बाजार से दोबारा बीज खरीदने की ज़रूरत नहीं है अगर वे सीधी रेखा वाली प्रजातियां लगाते हैं, लेकिन संकर के लिए उन्हें हर साल बीज ख़रीदना होगा।

“BG-II को लंबी अवधि के संकर में अनुमोदित नहीं किया जाना चाहिए था,” उन्होंने कहा। “हमने ठीक इसके विपरीत किया।”

गुलाबी कीड़ों की वापसी और पिछले तीन वर्षों में किसानों को हुई क्षति ने, लगभग 50 भारतीय कपास बीज कंपनियों को मोनसेंटो के खिलाफ खड़ा कर दिया है, जिससे उन्होंने BG-I और BG-II कपास तकनीक ली थी। कम से कम 46 कंपनियों ने 2016-17 में मोनसेंटो को रॉयल्टी देने से इनकार कर दिया - लेकिन यह एक अलग कहानी है।

अब नज़र के सामने या निकट भविष्य में ऐसी कोई नई जीएम तकनीक नहीं है जो BG-II को बदलने का वादा करती हो। न तो अधिक प्रभावी कीटनाशकों के लिए कोई तकनीक उपलब्ध है। भारत कपास के अपने खेतों पर गहरी मुसीबत में है, यह एक ऐसी फसल है जो भूमि के विशाल हिस्से पर लगाई जाती है और ग्रामीण भारत में लाखों दिन के काम उपलब्ध कराती है।

A man walking through cotton trees
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वडंद्रे ने शुरू में कपास की अपनी अच्छी दिखने वाली फसल को जनवरी 2018 में छोड़ दिया। ‘...यह साल विनाशकारी है’, उन्होंने कहा

‘मैं जल्द ही अपने खेत को समतल करूंगा’

विमुक्त कपास किसान वडंद्रे ने जनवरी 2018 में, आमगांव (खुर्द) में अपनी फसल को छोड़ दिया। उन्होंने मुझे बताया कि कपास चुनने की लागत उससे कहीं ज़्यादा होती, जो उन्हें ख़राब कपास को बेचने से मिल सकती थी। “आप इन पौधों को देखें - ऐसा लगता है कि ये मुझे बंपर फसल देंगे। लेकिन यह साल विनाशकारी है,” उन्होंने लंबे और मज़बूत पौधों की पंक्तियों के बीच चलते हुए कहा, इन पौधों को खड़ा रखने के लिए बांस के डंडों की आवश्यकता थी।

महाराष्ट्र में कपास के बहुत से किसानों ने, एक और विनाशकारी सीज़न के बाद जब उनमें से अधिकतर में फूल नहीं आया, अपने पौधों को समतल कर दिया। यवतमाल जिले में कुछ लोगों ने खड़ी फसल पर बुलडोज़र चला दिया, अन्य लोगों ने कपास को उसकी हालत पर छोड़ दिया, क्योंकि बर्फ जैसे सफेद खेतों के बड़े भाग पर कीड़ों का हमला हो चुका था।

पश्चिमी विदर्भ में कटाई का मौसम आने से कुछ दिनों पहले ही कीटनाशकों के छिड़काव से कई दुर्घटनाएं हुईं: लगभग 50 किसानों की मौत हो गई, लगभग एक हजार लोग गंभीर रूप से बीमार हो गए, उनमें से कुछ की जुलाई-नवंबर 2017 में आंखें खराब हो गईं।

जनवरी में सर्दी के बढ़ते ही गुलाबी कीड़े मोटे-ताज़े होने लगे, जिससे कपास के किसानों का बहुत ज़्यादा नुकसान हुआ।

जनवरी में जब मैं वडंद्रे से मिला, तो उन्होंने हमें छोटे लेकिन घातक कीट द्वारा खोखला कर दिये गए डोडे दिखाते हुए कहा था, “मैं अपने खेत को जल्द ही समतल कर सकता हूं।” मैं उनसे पहले भी दो बार मिल चुका था, लेकिन पिछले मौकों की तुलना में इस बार, ये डोडे गुलाबी कीड़ों से पूरी तरह बर्बाद हो चुके थे। उन्होंने कहा कि कीटनाशकों की कोई भी मात्रा कीड़ों को नष्ट करने में मदद नहीं करेगी, क्योंकि यह डोडे के अंदर जमा हो जाते हैं और रासायनिक स्प्रे से खुद को बचा लेते हैं, और इनकी संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ती है।

वडंद्रे की चिंता भारत के कपास के खेतों पर गहराते संकट का इशारा है।

हिंदी अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़

Jaideep Hardikar

Jaideep Hardikar is a Nagpur-based journalist and writer, and a PARI core team member.

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Translator : Mohd. Qamar Tabrez
dr.qamartabrez@gmail.com

Mohd. Qamar Tabrez is the Translations Editor, Hindi/Urdu, at the People’s Archive of Rural India. He is a Delhi-based journalist, the author of two books, and was associated with newspapers like ‘Roznama Mera Watan’, ‘Rashtriya Sahara’, ‘Chauthi Duniya’ and ‘Avadhnama’. He has a degree in History from Aligarh Muslim University and a PhD from Jawaharlal Nehru University, Delhi.

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