कमला जब चौथी बार गर्भवती हुईं और उन्होंने बच्चा नहीं रखने का फ़ैसला किया, तो उनके सामने पहले विकल्प के तौर पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं था, जो उनकी बस्ती से तक़रीबन 30 किलोमीटर की दूरी पर बेनूर में स्थित है. अभी तक वह घर से निकलने पर ज़्यादा से ज़्यादा उनके घर से पैदल दूरी पर लगने वाली साप्ताहिक हाट तक ही गई थीं. वह कहती हैं, “मैं तो इस जगह के बारे में जानती तक नहीं थी. बाद में मेरे पति ने ही इसका पता लगाया.”
कुछेक साल पहले ही 30 साल की हुई कमला और उनके 35 वर्षीय पति रवि (बदले हुए नाम), दोनों ही गोंड आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. उन्होंने पहले एक स्थानीय ‘डॉक्टर’ से संपर्क किया, जिसका क्लीनिक उनकी बस्ती से ज़्यादा दूर नहीं था. वह कहती हैं, “एक दोस्त ने हमें उसके बारे में बताया था.” कमला अपने घर के पास की मामूली-सी ज़मीन पर सब्ज़ियां उगाती हैं, जिसे वह हाट (बाज़ार) में बेचती हैं, जबकि रवि स्थानीय मंडी में मज़दूरी करते हैं और अपने दो भाइयों के साथ मिलकर तीन एकड़ की ज़मीन पर गेहूं और मकई की खेती करते हैं. वह जिस क्लीनिक के बारे में बात कर रही हैं, उसे हाईवे से आसानी से देखा जा सकता है. क्लीनिक की तरफ़ से इसके ‘अस्पताल’ होने का दावा किया जाता है लेकिन प्रवेश द्वार पर ‘डॉक्टर’ के नाम वाली एक तख्ती तक नहीं लगी है बल्कि परिसर की दीवारों पर लगे फ्लेक्स पैनलों पर उनके नाम से पहले वह उपाधि लगी हुई है.
कमला बताती हैं कि ‘डॉक्टर’ ने उन्हें तीन दिनों के लिए पांच गोलियां दीं और उनसे इनके बदले 500 रुपये लिए और तुरंत ही फिर अगले मरीज़ आवाज़ दे दी गई. गोलियों के बारे में, इसके संभावित दुषप्रभावों और सबसे महत्वपूर्ण कि वह कितने दिनों में और किस तरह गर्भपात की उम्मीद कर सकती हैं, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई थी.
दवा लेने के कुछ घंटों बाद कमला को ब्लीडिंग होने लगी. वह बताती हैं, “मैंने कुछ दिनों तक इंतज़ार किया लेकिन ख़ून का बहना बंद ही नहीं हुआ इसलिए जिस डॉक्टर ने दवाएं दी थीं, हम फिर से उसके पास गए. उसने हमें पीएचसी जाने और सफ़ाई करवाने के लिए कहा.” यहां सफ़ाई से मतलब गर्भाशय की ‘सफ़ाई’ से है.
सर्दियों की मद्धिम धूप में बेनूर स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) के बाहर एक बेंच पर बैठीं कमला गर्भपात (एमटीपी) की प्रकिया शुरू किए जाने के लिए बुलाए जाने का इंतज़ार करती हैं. इस प्रक्रिया में तक़रीबन 30 मिनट का वक़्त लगेगा लेकिन इसके शुरू होने के पहले और प्रक्रिया के पूरा होने के बाद उनके लिए तीन से चार घंटे आराम करना ज़रूरी है. इस संबंध में एक दिन पहले ख़ून और पेशाब की अनिवार्य जांच कर ली गई थी.
छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले के इस सबसे बड़े पीएचसी को 2019 के अंत में नवीनीकृत किया गया था. इसमें विशेष प्रसूति कक्ष हैं जिसकी दीवारों पर मुस्कुराती हुई माओं और स्वस्थ बच्चों की तस्वीरें लगी हुई हैं. इस स्वास्थ्य केंद्र में 10 बेड की क्षमता वाला एक वार्ड, तीन बेड वाला लेबर रूम, ऑटोक्लेव मशीन, गर्भावस्था की अवधि पूरी कर चुकी और प्रसव का इंतज़ार कर रही महिलाओं के लिए आवासीय सुविधा के साथ-साथ एक किचन गार्डन भी है. यह बस्तर के आदिवासी बाहुल्य इलाक़े में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की भरोसेमंद तस्वीर पेश करता है.
राज्य के पूर्व मातृ स्वास्थ्य सलाहकार डॉक्टर रोहित बघेल कहते हैं, “बेनूर पीएचसी [नारायणपुर ब्लॉक में स्थित] ज़िले का सबसे बेहतर स्वास्थ्य केंद्र है जो हर तरह की सुविधाओं और सेवाओं से लैस है. इसके 22 कर्मचारियों में एक डॉक्टर, एक आयुष [दवा की स्वदेशी प्रणाली] चिकित्सा अधिकारी, पांच नर्सें, दो लैब तकनीशियन और यहां तक कि एक स्मार्ट कार्ड कंप्यूटर ऑपरेटर भी शामिल है.”
इस पीएचसी में इलाज के लिए लगभग 30 किलोमीटर की दूरी तक के गांवों के मरीज़ आते हैं. 77.36 फ़ीसदी अनुसूचित जनजाति की आबादी वाले इस ज़िले के आदिवासी ही आमतौर पर इस स्वास्थ्य केंद्र का रुख करते हैं. इनमें मुख्यतः गोंड, अभुज मारिया, हल्बा, धुर्वा, मुरिया और मारिया समुदायों के लोग आते हैं.
लेकिन अपने चेहरे को पोल्का-डॉट वाली एक पतली-सी शॉल से ढंकने की कोशिश करते हुए कमला कहती हैं, “हमें नहीं पता था कि आप यहां ऐसी चीज़ें करा सकते हैं.” उनके तीन बच्चे हैं जिनमें 12 और 9 साल की दो लड़कियां और 10 साल का एक लड़का है. इन सबका जन्म गोंड आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाली एक दाई की मदद से घर पर ही हुआ था. प्रसव से पहले या बाद में कमला की किसी भी तरह देखरेख नहीं हुई. संस्थागत प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं का यह उनका पहला अनुभव है. वह कहती हैं, “मैं पहली बार अस्पताल आई हूं. मैंने कभी सुना ज़रूर था कि आंगनवाड़ी में गोलियां दी जाती हैं लेकिन मैं वहां कभी नहीं गई.” यहां कमला ग्रामीण स्वास्थ्य आयोजकों (आरएचओ) का ज़िक्र कर रही हैं, जो फ़ोलिक एसिड की गोलियां वितरित करने और प्रसव पूर्व जांच करने के लिए गांवों और बस्तियों में जाते हैं.
सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और कमला के बीच मौजूद खाई यहां के केस में कोई असामान्य बात नहीं है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 4 (2015-16) के मुताबिक़ ग्रामीण छत्तीसगढ़ में 33.2 प्रतिशत महिलाओं का प्रसव संस्थागत नहीं होता है. इसमें इस बात का भी ज़िक्र है कि ग्रामीण इलाक़ों में निवास करने वाली और कमला की तरह ही गर्भ निरोधकों का इस्तेमाल न करने वाली महिलाओं में से सिर्फ़ 28 फ़ीसदी महिलाओं ने परिवार नियोजन के बारे में किसी स्वास्थ्य कार्यकर्ता से बात की है. एनएफ़एचएस-4 में आगे यह भी कहा गया है कि ‘अनियोजित गर्भधारण अपेक्षाकृत रूप से सामान्य बात है’ और ‘गर्भपात कराने वाली लगभग एक-चौथाई महिलाओं में गर्भपात से संबंधित परेशानियों दर्ज़ की गई हैं’.
बदहाल सड़क या सड़कों के न होने जैसी परिवहन की समस्याओं की वजह से नारायणपुर के ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाली 90 फीसदी आबादी के लिए रिप्रोडक्टिव हेल्थकेयर तक पहुंच दूर की कौड़ी की तरह है. हालांकि नारायणपुर ज़िले के सार्वजनिक स्वास्थ्य नेटवर्क में आठ पीएचसी, एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) और 60 उप-स्वास्थ्य केंद्र आते हैं लेकिन डॉक्टरों की कमी बनी हुई है. डॉ. बघेल बताते हैं, “ज़िले में विशेषज्ञ डॉक्टरों के 60 प्रतिशत पद ख़ाली हैं. जिला अस्पताल के अलावा किसी भी अन्य अस्पताल में कोई स्त्री रोग विशेषज्ञ ही नहीं है. और ओरछा ब्लॉक में गरपा और हंदवाड़ा में स्थित दोनों पीएचसी कमरे भर के दायरे में चलते हैं. वहां न तो कोई इमारत है और मौजूद डॉक्टर भी मुश्किलों से ही जूझ रहे हैं.”
ऐसे हालात में कमला और दूसरी बहुत-सी महिलाओं को प्रजनन स्वास्थ्य से संबंधित उनकी ज़रूरतों के लिए झोलाछाप डॉक्टरों का ही रुख करने को मज़बूर हो जाती हैं. मसलन वह ‘डॉक्टर’ ही जिससे कमला ने परामर्श लिया था. गोंड आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले और ज़िले में स्वास्थ्य और पोषण पर यूनिसेफ द्वारा समर्थित कार्यक्रम के तहत काम करने वाले स्थानीय एनजीओ, ‘साथी समाज सेवी संस्था’, के सहायक परियोजना समन्वयक प्रमोद पोटाई बताते हैं, “हमारे कई आदिवासी लोगों को इस बात की जानकारी नहीं है कि कौन एलोपैथिक डॉक्टर है और कौन नहीं. हमारे यहां ‘झोलाछाप डॉक्टर’ हैं जो दरअसल कथित तौर पर ‘नीम-हकीम’ हैं [बिना उस तरह की योग्यता लिए दवा देने वाले] लेकिन वे इंजेक्शन, ड्रिप और दवाइयां देते रहते हैं और कोई भी उनसे सवाल नहीं करता है.”
डॉक्टरों की इस तरह की कमी की भरपाई करने के लिए राज्य सरकार ने ग्रामीण चिकित्सा सहायकों (आरएमए) का पद सृजित किया. 2001 में जब छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ था तब कुल 1,455 स्वीकृत पदों की तुलना में पीएचसी स्तर पर केवल 516 चिकित्सा अधिकारी थे. 2001 के छत्तीसगढ़ चिकित्सा मंडल अधिनियम के पीछे का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों के लिए स्वास्थ्य कर्मचारियों को प्रशिक्षित करना था. मूल रूप से ‘प्रैक्टिशनर्स इन मॉडर्न मेडिसिन एंड सर्जरी’ शीर्षक वाले तीन वर्षीय पाठ्यक्रम का नाम तीन महीने के भीतर बदल कर ‘डिप्लोमा इन अल्टरनेटिव मेडिसिन’ कर दिया गया. इसके लिए मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) से परामर्श नहीं लिया गया था और ‘आधुनिक चिकित्सा’ तथा ‘सर्जरी’ जैसे शब्दों के इस्तेमाल को लेकर कानूनी चिंताएं व्यक्त की गई थीं. पाठ्यक्रम में बायोकेमिक मेडिसिन, हर्बो-मिनरल मेडिसिन, एक्यूप्रेशर, फिज़ियोथेरेपी, मैग्नेटो-थेरेपी, योग और फूल द्वारा उपचार शामिल थे. आरएमए के रूप में योग्य व्यक्तियों को ‘सहायक चिकित्सा अधिकारी’ के पदनाम के साथ विशेष रूप से ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में तैनात किया जाना था.
हालांकि, एमसीआई ने यह कहते हुए डिप्लोमा कोर्स को अस्वीकार कर दिया कि इससे मेडिकल प्रोफेशन के मानकों के कमज़ोर होने की संभावना थी. तीन रिट याचिकाएं (पहली 2001 में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की छत्तीसगढ़ राज्य शाखा द्वारा और अन्य स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की यूनियनों द्वारा, नर्सों के संघों और अन्य लोगों द्वारा) बिलासपुर के उच्च न्यायालय में दायर की गई थीं. अदालत ने 4 फरवरी, 2020 को कहा कि राज्य ने आरएमए के लिए ‘सहायक चिकित्सा अधिकारी’ के पदनाम को समाप्त करने का एक ‘नीतिगत निर्णय’ लिया था. अदालत ने कहा कि आरएमए ‘डॉक्टर’ की उपाधि का उपयोग नहीं कर सकते, स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर सकते बल्कि केवल एमबीबीएस डॉक्टर की देखरेख में काम कर सकते हैं और ‘बीमारी/ गंभीर स्थितियों/ आपातकालीन स्थितियों में केवल प्राथमिक चिकित्सा या हालत बिगड़ने से रोकने का काम कर सकते हैं.
आरएमए ने हालांकि एक महत्वपूर्ण खाई को पाटा है. डॉ. बघेल कहते हैं, “डॉक्टरों की कमी की वजह से कम से कम जो लोग ‘नीम-हकीम’ के पास गए थे, अब वे आरएमए से संपर्क कर सकते हैं. उनके पास थोड़ा-बहुत मेडिकल प्रशिक्षण हैं और वे गर्भनिरोधकों के बारे में सामान्य परामर्श दे सकते हैं लेकिन वे इससे अधिक कुछ नहीं कर सकते. केवल एक योग्य एमबीबीएस डॉक्टर ही गर्भपात से संबंधित परामर्श और दवाएं दे सकता है.”
बघेल बताते हैं कि वर्ष 2019-20 में राज्य में 1,411 आरएमए काम कर रहे थे. वह कहते हैं, “हमें मातृ मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर में गिरावट के लिए उन्हें कुछ श्रेय ज़रूर देना चाहिए.” छत्तीसगढ़ में शिशु मृत्यु दर जो 2005-06 में प्रति हज़ार जन्म पर 71 थी, वह 2015-16 में घटकर 54 हो गई, जबकि सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र में संस्थागत जन्म दर 2005-06 में 6.9 प्रतिशत से बढ़कर 55.9 प्रतिशत हो गया था (एनएफएचएस-4).
कमला को इस बात की रत्ती भर भी जानकारी नहीं है कि उन्होंने शुरू में जिस ‘डॉक्टर’ से परामर्श लिया था, वह आरएमए था या पूरी तरह से झोलाछाप डॉक्टर. दोनों में से कोई भी गर्भपात में इस्तेमाल होने वाले मेसोप्रिस्टॉल और मिफीप्रेटोन देने के लिए अधिकृत नहीं है, जिसे लेने की सलाह कमला को दी गई थी. बेनूर पीएचसी की प्रमुख, 26 वर्षीय एलोपैथिक डॉक्टर परमजीत कौर बताती हैं, “इन दवाओं का परामर्श देने के की योग्यता हासिल करने के लिए एमबीबीएस डॉक्टरों को भी सरकारी अस्पतालों में एमटीपी के बारे में 15-दिवसीय प्रशिक्षण शिविर में भाग लेना पड़ता है. रोगी की निगरानी करनी पड़ती है ताकि ख़ून बहुत अधिक न बह जाए और इसकी भी जांच करनी पड़ती है कि गर्भपात की प्रक्रिया सुचारू रूप से अंजाम दी गई या नहीं. अन्यथा यह जानलेवा साबित हो सकता है.”
कौर कहती हैं कि लगभग दो साल पहले जब उनकी तैनाती बस्तर के इस हिस्से में हुई थी तब से उन्होंने कमला के मामले जैसे लापरवाही के कई केस मामले देखे हैं. उनके वाह्य रोगियों के रजिस्टर में औसतन 60 रोगियों की सूची है जो वहां एक दिन में अलग-अलग तरह की शिकायतों के साथ आते हैं और शनिवार को (जब इस इलाक़े में बाजार लगती है) ऐसे रोगियों की संख्या लगभग 100 हो जाती है. वह कहती हैं, “मैं ओपीडी में इस तरह के ‘राहत-बचाव’ के मामले की तरह रिप्रोडक्टिव हेल्थ से जुड़े मामले काफ़ी तादाद में देखती हूं जिनमें झोलाछाप चिकित्सकों द्वारा इलाज पाए लोग आते हैं. प्रेरित गर्भपात में लापरवाही बरतने पर संक्रमण हो सकता है जिससे बांझपन, गंभीर रुग्णता या मृत्यु तक हो सकती है. यहां आने वाली ज्यादातर महिलाओं को इन सब बातों की जानकारी ही नहीं होती. उन्हें सिर्फ़ एक गोली देकर वापस भेज दिया जाता है जबकि दवाएं देने से पहले उनकी एनीमिया और ब्लड-सुगर संबंधी जांच की जानी चाहिए.”
बेनूर से लगभग 57 किलोमीटर की दूरी पर स्थित धोडई के एक अन्य पीएचसी में हल्बी आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाली 19 वर्षीय सीता (बदला हुआ नाम) अपने दो साल के बच्चे के साथ आई हैं. वह कहती हैं, “मेरा बच्चा घर पर पैदा हुआ था और मैंने अपनी गर्भावस्था के दौरान या बाद में कभी किसी से सलाह नहीं ली.” निकटतम आंगनवाड़ी– जहां प्रसव से पहले और बाद में जांच करने के लिए स्वास्थ्य कार्यकर्ता उपलब्ध होते हैं– उनके घर से केवल 15 मिनट की पैदल दूरी पर है. वह कहती हैं, “वे जो कुछ भी कहते हैं, वह मेरी समझ में ही नहीं आता.”
जितने भी स्वास्थ्य क्षेत्र के पेशेवरों से मेरी मुलाक़ात हुई, उनमें से ज़्यादातर ने कहा कि चिकित्सीय सलाह देने में भाषा एक रुकावट की तरह पेश आती है. ग्रामीण बस्तर के ज्यादातर आदिवासी या तो गोंडी बोलते हैं या हल्बी और उन्हें छत्तीसगढ़ी थोड़ा-बहुत ही समझ आती है. बहुत संभव है कि स्वास्थ्य क्षेत्र के ये पेशेवर स्थानीय न हों या इन भाषाओं में से केवल एक को जानता/जानती हो. कनेक्टिविटी एक और समस्या है. धोडई के 38 वर्षीय आरएमए, एल. के. हर्जपाल कहते हैं, “धोडई पीएचसी के दायरे में 47 गांव आते हैं जिनमें से 25 तक पहुंचने के लिए कोई भी सड़क नहीं है. अंदरूनी इलाक़ों तक पहुंचना और भी मुश्किल है और भाषा की भी अपनी समस्या है. इसलिए हम ठीक से अपना काम [गर्भवती महिलाओं की जांच-पड़ताल करते रहना) नहीं कर सकते. हमारी सहायक नर्सों/ दाइयों (एएनएम) के लिए सभी घरों को कवर कर पाना बेहद मुश्किल हो जाता है और वे एक-दूसरे से काफ़ी दूरी पर भी स्थित हैं.” महिलाओं की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच को सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकार ने 2014 में बाइक एम्बुलेंस की शुरुआत की थी और अब ज़िले में ऐसी पांच एम्बुलेंस सेवाएं लोगों के लिए उपलब्ध हैं.
22 वर्षीय दशमती यादव उन लोगों में से एक हैं जिन्होंने इस एम्बुलेंस का इस्तेमाल किया था. वह और उनके पति प्रकाश बेनूर पीएचसी से कुछ किलोमीटर दूर पांच एकड़ की ज़मीन पर खेती करते हैं. उनकी महीने भर की एक बेटी है. दशमती बताती हैं, “जब मैं पहली बार गर्भवती हुई थी तो गांव के सिरहा [पारंपरिक हकीम] ने मुझसे कहा था कि मैं आंगनवाड़ी या अस्पताल न जाऊं. उन्होंने कहा था कि वह मेरा ख़याल रखेंगे लेकिन घर पर जन्म के कुछ वक़्त बाद ही मेरे बच्चे (बेटा) की मृत्यु हो गई. इसलिए इस बार मेरे पति ने एम्बुलेंस को फ़ोन किया और मुझे डिलीवरी के लिए बेनूर ले जाया गया.” बस्ती से 17 किलोमीटर दूर स्थित इस पीएचसी की तरफ़ से महतारी एक्सप्रेस (छत्तीसगढ़ी में ‘महतारी’ का अर्थ है ‘मां’) नामक एम्बुलेंस सेवा का संचालन किया जाता है जिसे 102 पर फ़ोन करके बुक किया जा सकता है. दशमती की बेटी अब अच्छी हालत में है और जब वह बोलती है तो उसकी मां की ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहता.
नारायणपुर की ज़िला स्वास्थ्य सलाहकार डॉक्टर मीनल इंदुरकर बताती हैं, “ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को अस्पताल में प्रसव के लिए प्रोत्साहित करने के लिए 2011 में [केंद्र सरकार द्वारा] जननी शिशु सुरक्षा योजना का शुभारंभ किया गया था, जिसके तहत अस्पताल जाने के लिए यात्रा का ख़र्च, अस्पताल में मुफ़्त रिहाइश, मुफ़्त भोजन और ज़रूरत के मुताबिक़ दवाइयां उपलब्ध कराने की सुविधा दी जाती है. और प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना के अंतर्गत उन माताओं को 5,000 रुपये नक़द दिये जाते हैं जो प्रसवपूर्व चार बार जांच करवाती हैं, किसी संस्था में बच्चे को जन्म देती हैं और अपने नवजात शिशु को सारे टीके लगवाती हैं.”
बेनूर पीएचसी में, जहां कमला अपने एमटीपी का इंतज़ार कर रही हैं, रवि अपनी पत्नी के लिए एक कप चाय लेकर आते हैं. लंबे बाजू की शर्ट और नीली जींस पहने रवि रहस्य साझा करते हुए बताते हैं कि उन्होंने अपने परिवार को यह नहीं बताया है कि वे स्वास्थ्य केंद्र क्यों आए हैं. वह कहते हैं, “हम उन्हें बाद में बताएंगे. हमें तीन बच्चों की परवरिश करनी है, हम एक और बच्चे को नहीं संभाल सकते.”
कमला बचपन में ही अनाथ हो गई थीं और उनका पालन-पोषण उनके चाचा ने किया था जिन्होंने शादी भी करवाई. शादी से पहले उन्होंने अपने पति को नहीं देखा था. वह बताती हैं, “मेरे पहली माहवारी के बाद ही मेरी शादी कर दी गई थी. मेरे समुदाय में ऐसा ही होता है. मुझे नहीं पता था कि शादी में क्या होता है. मेरी माहवारी के बारे में मेरी मामी ने सिर्फ़ इतना ही कहा था कि ‘डेट आएगा’. मैं कभी स्कूल नहीं गई और मैं पढ़ना नहीं आता. लेकिन मेरे तीनों बच्चे स्कूल में पढ़ रहे हैं.” बच्चों की पढ़ाई की बात करते हुए वह गर्व से भर जाती हैं.
कमला कुछ महीनों के बाद नसबंदी कराने के लिए एक और बार पीएचसी आने का इरादा रखती हैं. उनके पति अपनी नसबंदी करवाना नहीं चाहेंगे क्योंकि उनका मानना है कि इससे उनकी पौरुष को नुकसान पहुंचेगा. कमला को उनकी इस यात्रा के दौरान पहली बार गर्भनिरोधकों और नसबंदी जैसी चीज़ के बारे पता चला लेकिन उन्होंने इस संबंध में दी गई जानकारी को बिना ज़्यादा वक़्त लगाए समझ लिया है. वह कहती हैं, “डॉक्टर ने मुझे बताया कि अगर मैं गर्भवती नहीं होना चाहती तो यह एक विकल्प है.” परिवार नियोजन की तकनीकों की जानकारी कमला को 30 साल की उम्र में हुई है. यह तब है जबकि उनके तीन बच्चे हो चुके हैं और जब एक सर्जरी उनके प्रजनन चक्र को पूरी तरह से रोक देगी.
रिपोर्टर इस स्टोरी में मदद करने के लिए भूपेश तिवारी, अविनाश अवस्थी, और विदुषी कौशिक की शुक्रगुज़ार हैं.
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अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़