रूपा पिरिकाका ने कुछ अनिश्चितता के साथ कहा, “हर कोई इसका इस्तेमाल कर रहा है. इसलिए हम भी कर रहे हैं."
‘ये’ आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) बीटी कपास के बीज हैं, जिसे अब आसानी से स्थानीय बाज़ार में या अपने गांव में भी ख़रीदा जा सकता है. 'हर कोई' से रूपा का मतलब इस गांव और दक्षिण-पश्चिम ओडिशा के रायगड़ा ज़िले के बाक़ी गांवों के अनगिनत अन्य किसान हैं.
वह कहती हैं, “उन्हें हाथों में पैसा मिल रहा है."
40 साल से ज़्यादा उम्र की हो चुकीं पिरिकाका एक कोंध आदिवासी किसान हैं. दो दशकों से अधिक समय से वह हर साल डोंगर चास - शाब्दिक अर्थ है ‘पर्वतीय खेती’ (स्थानांतरी कृषि) - के लिए एक पहाड़ी ढलान तैयार करती हैं. इस क्षेत्र के किसानों द्वारा सदियों से अपनाई गई परंपराओं पर अमल करते हुए, पिरिकाका, फ़सलों से बचाए गए पिछले वर्ष के बीज मिश्रित भूखंडों पर बोती हैं. इनसे पर्याप्त मात्रा में खाद्य फ़सलें प्राप्त होंगी: मंडिया और कंगु जैसे बाजरा, अरहर और काले चने जैसी दालें, साथ ही लंबी फलियां, काला तिल के बीज, और तिल की पारंपरिक क़िस्में.
इस जुलाई में, पिरिकाका ने पहली बार बीटी कपास की बुआई की. यही वह समय था, जब हम उनसे मिले. तब वह बिषमकटक ब्लॉक में स्थित अपने गांव में एक पहाड़ी ढलान पर गहरे गुलाबी, रसायनों में डूबे बीज बो रही थीं. आदिवासियों की स्थानांतरी कृषि की परंपराओं में कपास की पैठ हैरान कर देने वाली थी, जिसने हमें उनसे इस बदलाव के बारे में पूछने पर मजबूर किया.
पिरिकाका स्वीकार करती हैं, “हल्दी जैसी अन्य फ़सलों से भी पैसा आता है. लेकिन कोई भी इनकी खेती नहीं कर रहा है. सभी लोग मंडिया [बाजरा] को छोड़ रहे हैं और कपास की ओर भाग रहे हैं.”
रायगड़ा ज़िले में कपास का रक़बा 16 वर्षों में 5,200 प्रतिशत बढ़ गया है. आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक़, 2002-03 में सिर्फ़ 1,631 एकड़ ज़मीन पर कपास की खेती हुई थी. ज़िला कृषि कार्यालय के अनुसार, 2018-19 में यह रक़बा बढ़कर 86,907 एकड़ हो गया था.
रायगड़ा, जहां की आबादी 10 लाख के क़रीब है, कोरापुट क्षेत्र का हिस्सा है, जो दुनिया के जैव विविधता वाले सबसे बड़े इलाक़ों में से एक है, और चावल की बहुरूपता वाला एक ऐतिहासिक क्षेत्र है. केंद्रीय चावल अनुसंधान संस्थान के 1959 के सर्वेक्षण से पता चलता है कि उस समय भी इस क्षेत्र में 1,700 से अधिक चावल की क़िस्में थीं. लेकिन, अब यह संख्या गिरकर लगभग 200 पर पहुंच गई है. कुछ शोधकर्ता तो इस इलाक़े को चावल की खेती का जन्मस्थान मानते हैं.
यहां के कोंध आदिवासी, बड़े पैमाने पर कृषि से निर्वाह करने वाले किसान, कृषि-वानिकी के अपने परिष्कृत तरीकों के लिए जाने जाते हैं. आज भी, कई कोंध परिवार इस क्षेत्र के हरे-भरे सीढ़ीदार खेतों और पहाड़ी खेतों में धान और बाजरा की विभिन्न क़िस्में, दाल, तथा सब्ज़ियां उगाते हैं. रायगड़ा की एक गैर-लाभकारी संस्था, लिविंग फ़ार्म्स के हाल के सर्वेक्षणों में बाजरा की 36 क़िस्मों और 250 वन खाद्य पदार्थों का दस्तावेज़ीकरण किया गया है.
यहां के ज़्यादातर आदिवासी किसान 1 से 5 एकड़ तक के व्यक्तिगत या जन संपत्ति वाले खेतों पर काम करते हैं.
उनके बीज बड़े पैमाने पर समुदाय के भीतर ही पोषित और साझा किए जाते हैं, लगभग किसी भी सिंथेटिक उर्वरक या अन्य कृषि-रसायनों का उपयोग किए बिना.
फिर भी, रायगड़ा में धान के बाद कपास दूसरी सबसे अधिक उगाई जाने वाली फ़सल बन गई है, जो इस क्षेत्र की प्रमुख पारंपरिक खाद्य फ़सल - बाजरा से आगे निकल गई है. यह फ़सल इस ज़िले में खेती की कुल 428,947 एकड़ की ज़मीन के पांचवें हिस्से में उगाई जाती है. कपास का तेज़ी से विस्तार इस भूमि के आकार को बदल रहा है और लोग कृषि-पारिस्थितिक ज्ञान में फंसे हुए हैं.
कपास की खेती भारत के सकल फ़सली क्षेत्र के लगभग 5 प्रतिशत हिस्से पर की जाती है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों, शाकनाशियों, और कवकनाशियों की कुल मात्रा के 36 से 50 प्रतिशत का उपभोग इसमें होता है. यह एक ऐसी फ़सल भी है जो भारत भर में क़र्ज़ और किसानों की आत्महत्याओं के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है.
यहां का परिदृश्य 1998 और 2002 के बीच के विदर्भ की याद दिलाता है - नए चमत्कारिक (और फिर अवैध) बीजों और भारी मुनाफ़े के सपनों को लेकर आरंभिक उत्साह, इसके बाद सिंचाई के लिए पानी के अत्यधिक इस्तेमाल का प्रभाव, ख़र्चों और क़र्ज़ में भारी वृद्धि, और विभिन्न पारिस्थितिक दबाव. विदर्भ एक दशक से अधिक समय से देश के किसानों की आत्महत्या का केंद्र बना हुआ है. इनमें से अधिकतर बीटी कपास उगाने वाले किसान थे.
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हम जिस दुकान पर खड़े हैं, उसके मालिक 24 वर्षीय कोंध आदिवासी चंद्र कुद्रुका (बदला हुआ नाम) हैं. भुवनेश्वर से होटल मैनेजमेंट की डिग्री लेकर लौटने के बाद उन्होंने इस साल जून में, नियमगिरी पहाड़ों में स्थित अपने गांव रुकागुड़ा (बदला हुआ नाम) में यह दुकान खोली थी. इसमें आलू, प्याज़, तले हुए स्नैक्स, मिठाइयां रखी हुई थीं, और यह गांव की किसी भी अन्य दुकान की तरह ही लग रही थी.
उनके सबसे अधिक बिक्री वाले उत्पाद को छोड़कर - जो काउंटर के नीचे सजाकर रखा था. कपास के बीजों के चमकदार, बहुरंगी पैकेटों की एक बड़ी बोरी, जिनमें से कई पर खुशहाल किसानों के चित्र और 2,000 रुपए के नोट बने हैं.
कुद्रुका की दुकान में रखे बीज के बहुत सारे पैकेट, अवैध और अनाधिकृत थे. कुछ पैकेटों पर तो लेबल भी नहीं लगा था. उनमें से कई ओडिशा में बिक्री के लिए अनुमोदित नहीं थे. और तो और, उनकी दुकान के पास बीज और कृषि-रसायन बेचने का लाइसेंस भी नहीं था.
इसके अलावा स्टॉक में, बीज के साथ बेचे जाने के लिए, विवादास्पद शाकनाशक ग्लाइफ़ोसेट की हरी और लाल बोतलों के डिब्बे थे. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की 2015 की एक रिपोर्ट (जिसे इंडस्ट्री के दबाव में डब्ल्यूएचओ ने बाद में पलट दिया) में ग्लाइफ़ोसेट को ‘इंसानों के लिए संभवतः कैंसरकारी’ माना था. यह पंजाब और केरल जैसे राज्यों में प्रतिबंधित है, पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश में निषिद्ध है, और वर्तमान में इसके मूल देश, अमेरिका में कैंसर के रोगियों द्वारा दायर किए गए कई मिलियन डॉलर के मुकदमों के केंद्र में है.
रायगड़ा के किसान इन सब बातों से अज्ञान हैं. ग्लाइफ़ोसेट, जिसे ‘घास मारा’ - अर्थात घास मारने वाला - कहा जाता है, उन्हें इसलिए बेचा जाता है, ताकि वे अपने खेतों से घास-फूस को तेज़ी से नष्ट कर सकें. लेकिन यह एक व्यापक शाकनाशक है, जो आनुवंशिक रूप से संशोधित किए गए पौधों के अलावा अन्य सभी पौधों को मार देता है. कुद्रुका ने भी हमें तेज़ी से कपास के वह बीज दिखाए जिस पर उनके अनुसार ग्लाइफ़ोसेट के छिड़काव का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा. इस तरह के ‘हर्बिसाइड टॉलरेंट’ (शाकनाशक को झेलने वाले) या ‘एचटी बीज’ भारत में प्रतिबंधित हैं.
कुद्रुका ने हमें बताया कि वह पिछले पखवाड़े में किसानों को इन बीजों के 150 पैकेट पहले ही बेच चुके हैं, और आगे कहा, “मैंने और मंगवाए हैं. वे कल तक आ जाएंगे.”
ऐसा लगता है कि यह कारोबार जमकर चल रहा है.
ज़िले में फ़सल की खेती का निरीक्षण करने वाले एक अधिकारी ने हमें ऑफ़ द रिकॉर्ड बताया, “रायगड़ा में इस समय कपास का लगभग 99.9 प्रतिशत हिस्सा बीटी कपास का है - गैर-बीटी बीज यहां उपलब्ध नहीं हैं. आधिकारिक तौर पर, ओडिशा में बीटी कपास ठहराव की स्थिति में है. यह न तो स्वीकृत है, न ही प्रतिबंधित है.”
हमें ओडिशा राज्य में बीटी कपास जारी करने की अनुमति देने के लिए ज़िम्मेदार केंद्र सरकार की एजेंसी से कोई लिखित प्रमाण नहीं मिला. बल्कि, कृषि मंत्रालय की 2016 में कपास की स्थिति की रिपोर्ट, ओडिशा में बीटी कपास के आंकड़े को, साल दर साल, शून्य के रूप में दर्शाती है, जिसका मतलब यह है कि सरकारें इसके अस्तित्व को स्वीकार नहीं करतीं. राज्य के कृषि सचिव डॉ. सौरभ गर्ग ने हमें फ़ोन पर बताया, “मुझे एचटी कपास की जानकारी नहीं है. बीटी कपास पर भारत सरकार की जो नीति है, वही नीति हमारी है. ओडिशा के लिए हमारे पास कुछ भी अलग नहीं है.”
इस रवैए के गंभीर परिणाम सामने आए हैं. अनाधिकृत बीटी और अवैध एचटी बीजों के साथ-साथ कृषि-रसायनों का व्यापार बढ़ रहा है, और रायगड़ा के नए क्षेत्रों में तेज़ी से फैलता जा रहा है, जैसा कि नियमगिरी के पहाड़ों में कुद्रुका की दुकान में साफ़ दिख रहा था.
वैश्विक स्तर पर, कृषि-रसायनों ने मिट्टी के जीवाणुओं को नष्ट कर दिया है, उपजाऊ क्षमता समाप्त कर दी है और जैसा कि प्रोफ़ेसर शाहिद नईम ने हाल ही में कहा, “भूमि पर तथा पानी में उगने वाले पौधों और जानवरों के अनगिनत निवास स्थानों को” नुक़सान पहुंचाया है. नईम, जो न्यूयॉर्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में पारिस्थितिकी, विकास और पर्यावरण-जीवविज्ञान विभाग के प्रमुख हैं, का कहना है, “ये सभी जीव महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि सामूहिक रूप से वे स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र बनाते हैं, जो हमारे पानी और हवा से प्रदूषकों को हटाते हैं, हमारी मिट्टी को समृद्ध करते हैं, हमारी फ़सलों का पोषण करते हैं और हमारी जलवायु प्रणालियों को विनियमित करते हैं.”
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प्रसाद चंद्र पांडा ने कहा, “यह आसान नहीं था, मुझे उन्हें (आदिवासी किसानों को) कपास की खेती की ओर मोड़ने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी."
अपने ग्राहकों तथा अन्य लोगों द्वारा ‘काप्पा पांडा’ - यानी शाब्दिक रूप से ‘कपास पांडा’ - के नाम से मशहूर, वह हमसे रायगड़ा के तहसील शहर, बिषमकटक में अपने बीज और रासायनिक उर्वरकों की दुकान, कामाख्या ट्रेडर्स में हमसे बात कर रहे थे.
पांडा ने यह दुकान 25 साल पहले खोली थी, जबकि इन तमाम वर्षों में वह ज़िले के कृषि विभाग में विस्तार अधिकारी के रूप में अपने पद पर भी बने रहे. वहां 37 साल नौकरी करने के बाद, वह 2017 में सेवानिवृत्त हुए. एक सरकारी अधिकारी के रूप में उन्होंने ग्रामीणों को अपनी “पिछड़ी कृषि” छोड़, कपास की खेती करने के लिए प्रेरित किया, जबकि उनकी दुकान से, जिसका लाइसेंस उनके बेटे सुमन पांडा के नाम से है, उन किसानों को बीज और संबंधित कृषि-रसायन बेचे जाते रहे.
पांडा को इसमें हितों का कोई टकराव नहीं दिखा. वह कहते हैं, “सरकार की नीतियों के तहत कपास की शुरुआत किसानों के लिए नक़दी फ़सल के रूप में की गई. फ़सल को बाज़ार के इनपुट की ज़रूरत थी, इसलिए मैंने एक दुकान खोली.”
पांडा की दुकान में हमारी बातचीत दो घंटे तक चली. इस बीच वहां किसान बीज और रसायन ख़रीदने के लिए आते रहे और उनसे यह भी पूछते रहे कि क्या ख़रीदना है, कब बोना है, कितना छिड़काव करना है, आदि. वह हर एक को अचूक विद्वान की तरह जवाब देते रहे. उन किसानों के लिए वह एक वैज्ञानिक विशेषज्ञ, विस्तार अधिकारी, उनके सलाहकार, सभी कुछ थे. उनका ‘चुनाव’ इनका आदेश था.
इस निर्भरता का जो दृश्य हमने पांडा की दुकान पर देखा था, वही हमें कपास उगाने वाले उन सभी गांवों में नज़र आया जहां हम गए. ‘बाज़ार’ के आने का प्रभाव कपास की फ़सल से परे जाकर पड़ा है.
वैज्ञानिक और नंगे पांव रहने वाले संरक्षणवादी, देबल देब ने हमें बताया, “कृषि योग्य भूमि चूंकि पूरी तरह से कपास के लिए आवंटित की जाती है, इसलिए किसानों को अपनी घरेलू ज़रूरतों का सारा सामान बाज़ार से ख़रीदना पड़ता है." रायगड़ा में 2011 से स्थित, देब एक उल्लेखनीय इन-सीटू चावल संरक्षण परियोजना चलाते हैं और किसानों को प्रशिक्षण देते हैं.
उन्होंने कहा, “खेती से संबंधित पारंपरिक ज्ञान और साथ ही गैर-कृषि व्यवसाय तेज़ी से लुप्त हो रहा है. एक गांव से लेकर दूसरे गांव तक न तो कोई कुम्हार बचा है, न कोई बढ़ई, और न ही कोई बुनकर. सभी घरेलू सामान बाज़ार से ख़रीदे जाते हैं, और इनमें से अधिकांश - घड़े से लेकर चटाई तक - प्लास्टिक से बने होते हैं, जो दूरदराज़ के शहरों से आयात किए जाते हैं. बांस ज़्यादातर गांवों से गायब हो चुके हैं, और उनके साथ बांस के शिल्पकार भी. अब उनकी जगह जंगल की लकड़ी और महंगी कंक्रीट ने ले ली है. हालत यह है कि एक खंभा गाड़ने या बाड़ बनाने के लिए भी, ग्रामीणों को जंगल से पेड़ काटने पड़ते हैं. अधिक लाभ के चक्कर में लोग जितना बाज़ार पर निर्भर होते जा रहे हैं, पर्यावरण को भी उतना ही ज़्यादा नुकसान पहुंचता जा रहा है.”
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रामदास (वह केवल अपना पहला नाम इस्तेमाल करते हैं) ने हमें संकोचपूर्वक बीटी कपास के बीज वाले उन तीन पैकेटों के बारे में बताया, जो उन्होंने कुद्रुका की दुकान से उधार ख़रीदे थे, “दुकानदार ने कहा था कि ये अच्छे हैं." इस कोंध आदिवासी से हमारी मुलाक़ात नियमगिरी की तलहटी में हुई थी, जब वह बिषमकटक ब्लॉक में स्थित अपने गांव, कालीपोंगा लौट रहे थे. उन्होंने हमें बताया कि बीज के उन पैकेटों को ख़रीदने की एकमात्र वजह दुकानदार द्वारा उन्हें दी गई सलाह थी.
इनके कितने पैसे दिए थे? इस सवाल के जवाब में उन्होंने बताया, “अगर मैं तुरंत भुगतान करता, तो हर एक के 800 रुपए देने पड़ते. लेकिन उस समय मेरे पास 2,400 रुपए नहीं थे, इसलिए दुकानदार अब मुझसे फ़सल कटाई के समय 3,000 रुपए लेगा.” लेकिन, अगर वह 1,000 रुपए की जगह 800 रुपए प्रति पैकेट भी भुगतान कर रहे होते, तो भी यह सबसे महंगे कपास के बीज - बोलार्ड II बीटी - की तय क़ीमत 730 रुपए से ज़्यादा होता.
पिरिकाका, रामदास, सुना, और अन्य किसानों ने हमें बताया कि कपास उन तमाम फ़सलों से बिल्कुल अलग थी जो वह पहले लगा चुके थे: ‘हमारी पारंपरिक फ़सलों को बढ़ने के लिए किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं पड़ती...’
रामदास ने जो पैकेट ख़रीदे थे उनमें से किसी पर भी मुद्रित मूल्य, विनिर्माण या समाप्ति की तारीख़, कंपनी का नाम या उससे संपर्क करने का विवरण, कुछ भी नहीं था. केवल कपास के एक कीड़े के चित्र के ऊपर लाल रंग से ‘X’ का बड़ा निशान लगा था, लेकिन बीटी बीजों का लेबल कहीं नहीं था. पैकेट पर ‘एचटी’ का निर्देश कहीं नहीं था, लेकिन रामदास का मानना था कि “घास मारा [शाकनाशक]” का छिड़काव फ़सल पर किया जा सकता है, क्योंकि दुकानदार ने उन्हें यही बताया था.
जुलाई के एक पखवाड़े में हमने जितने भी किसानों का साक्षात्कार लिया उन सभी की तरह, रामदास भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि भारत में शाकनाशक को सहन करने वाले बीजों को इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं है. वह नहीं जानते थे कि कंपनियां बिना लेबल वाले बीज बेच नहीं सकती हैं या यह कि कपास के बीज पर मूल्य की सीमाएं हैं. बीज के पैकेट और कृषि-रसायन की बोतलों पर उड़िया में चूंकि कुछ भी लिखा हुआ नहीं था, इसलिए यहां के किसानों को पता ही नहीं चला होगा कि इनके निर्माता क्या दावा कर रहे हैं, भले ही वे उसे पढ़ सकते हों.
फिर भी, पैसे की संभावना उन्हें कपास की ओर आकर्षित कर रही थी.
बिषमकटक ब्लॉक के केरंदिगुडा गांव के एक दलित बटाईदार किसान श्यामसुंदर सुना को उम्मीद थी, “अगर हम इसे उगाते हैं, तो शायद कुछ पैसा मिल जाए जिसकी ज़रूरत मुझे इस साल अंग्रेज़ी-माध्यम के एक निजी स्कूल में अपने बेटे की फ़ीस भरने के लिए है." हमने उन्हें, उनकी कोंध आदिवासी पत्नी कमला, और उनके दो बच्चों एलिज़ाबेथ और आशीष को कड़ी मेहनत से कपास के बीज बोते हुए पाया. सुना ने अपने बीजों में सभी तरह के कृषि-रसायनों का उपयोग किया था, जिनके बारे में वह बहुत कम जानते थे. उन्होंने बताया, “खुदरा विक्रेता ने मुझे बताया था कि इस तरह कपास अच्छी तरह उगेगी."
पिरिकाका, रामदास, सुना, और अन्य किसानों ने हमें बताया कि कपास उन तमाम फ़सलों से बिल्कुल अलग थी जो वह पहले लगा चुके थे. पिरिकाका ने कहा, “हमारी पारंपरिक फ़सलों को बढ़ने के लिए किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं पड़ती - कोई उर्वरक नहीं, कोई कीटनाशक नहीं." वहीं, रामदास ने बताया, लेकिन कपास में “प्रत्येक पैकेट के साथ और 10,000 रुपए लगाने पड़ते हैं. अगर आप इन बीजों, उर्वरकों, और कीटनाशकों पर ख़र्च कर सकते हैं, केवल तभी आपको फ़सल कटाई के समय कुछ लाभ मिल सकता है. अगर आप ऐसा नहीं कर सकते...तो आप अपना सारा पैसा खो देंगे. अगर आप कर सकते हैं, और स्थिर मौसम के साथ चीज़ें अच्छी रहीं - तो आप इसे [उनकी फ़सल] 30,000-40,000 रुपए में बेच सकते हैं.”
ये किसान हालांकि पैसा कमाने की उम्मीद में ही कपास की खेती कर रहे थे, लेकिन उनमें से कुछ ने ही बहुत ज़ोर डालने के बाद बताया कि इससे उन्होंने कितनी कमाई की.
जनवरी-फ़रवरी आते ही, किसानों को अपनी उपज खाद-बीज इत्यादि के खुदरा विक्रेता के माध्यम से ही बेचना पड़ेगा, जो उनकी लागतों को बहुत अधिक ब्याज़ के साथ वापस ले लेंगे और जो बचेगा उनके हवाले कर देंगे. चंद्र कुद्रुका ने हमें बताया, “मैंने अभी-अभी गुणपूर के व्यापारी से 100 पैकेट उधार मंगवाए हैं. मैं उसे फ़सल कटाई के समय चुकाऊंगा, और हम किसानों द्वारा दिए गए ब्याज़ का बंटवारा करेंगे.”
अगर किसानों की फ़सलें नाकाम रहीं और वे उन पैकेटों के पैसे चुका नहीं सके जो इन्होंने उन्हें उधार पर बेचे थे, तब क्या होगा? क्या यह एक बड़ा जोख़िम नहीं है?
युवक ने हंसते हुए पूछा, “कैसा जोख़िम? किसान कहां जाएंगे? उनका कपास मेरे माध्यम से व्यापारी को बेचा जाता है. अगर उन्होंने सिर्फ़ 1-2 क्विंटल फ़सल ही काटी, तब भी मैं उससे अपना बकाया वसूल कर लूंगा.”
यहां जो बात कही नहीं गई, वह यह थी कि किसानों के पास अंत में शायद कुछ भी नहीं बचेगा.
रायगड़ा को भी उसकी क़ीमती जैव-विविधता से वंचित कर दिया जाएगा. जैसा कि प्रोफ़ेसर नईम कहते हैं, विश्व स्तर पर, फ़सल की विविधता को समाप्त करने का अर्थ है खाद्य सुरक्षा को ख़तरे में डालना और ग्लोबल वार्मिंग के अनुकूल होने की क्षमता को कम करना. उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि जलवायु परिवर्तन और जैव-विविधता की हानि के बीच गहरा संबंध है: “जो ग्रह कम हरियाली वाला और जैविक रूप से कम विविध है, उसके अधिक गर्म होने और सूखने की संभावना है.”
और जिस तरह रायगड़ा के आदिवासी किसान बीटी कपास की एकल कृषि के लिए जैव-विविधता को छोड़ रहे हैं, ओडिशा पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था के दूरगामी बदलावों के दौर से गुज़र रहा है, जिसकी वजह से व्यक्तिगत और जलवायु प्रभाव, दोनों ही स्तर पर संकट पैदा होने लगा है. पिरिकाका, कुद्रुका, रामदास, और ‘कपास पांडा’ इन बदलावों में फंस चुके पात्रों में से एक हैं.
देबल देब ने कहा, “दक्षिणी ओडिशा पारंपरिक कपास उगाने वाला क्षेत्र कभी नहीं था. इसकी मज़बूती बहु-फ़सली कृषि में छुपी है. वाणिज्यिक कपास की इस एकल-कृषि ने फ़सलों की विविधता, मिट्टी की संरचना, घरेलू आय की स्थिरता, किसानों की आज़ादी, और अंत में, खाद्य सुरक्षा की तस्वीर को बदलकर रख दिया है.” यह कृषि संकट के न टाले जा सकने वाले दौर की गवाही देने लगा है.
लेकिन ये कारक, विशेष रूप से जो चीज़ें भूमि उपयोग में बदलाव से संबंधित हैं, साथ ही पानी और नदियों पर इन सभी के क्या प्रभाव पड़ते हैं, और जैव-विविधता की हानि - ख़ुद भी एक और दीर्घकालिक, बड़े पैमाने की प्रक्रिया में अपना योगदान दे रहे होंगे. दरअसल, हम इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के बीज की बुआई होता देख रहे हैं.
कवर फ़ोटो: कालीपोंगा गांव में किसान रामदास, शाकनाशक ग्लाइफ़ोसेट में अपनी ज़मीन को पूरी तरह डुबोने के कुछ दिनों बाद बीटी और एचटी कपास बो रहे हैं. (फ़ोटो: चित्रांगदा चौधरी)
पारी का जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित राष्ट्रव्यापी रिपोर्टिंग का प्रोजेक्ट, यूएनडीपी समर्थित उस पहल का एक हिस्सा है जिसके तहत आम अवाम और उनके जीवन के अनुभवों के ज़रिए पर्यावरण में हो रहे इन बदलावों को दर्ज किया जाता है.
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अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़