कोरोनो वायरस पर अपने पहले भाषण में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने हमें ताली, थाली और घंटी बजाकर बुरी आत्माओं को दूर भगाने के लिए कहा था।

फिर अपने दूसरे भाषण से उन्होंने हम सभी को डरा दिया था।

उन्होंने इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहा कि आने वाले हफ्तों में जनता, विशेष रूप से ग़रीब लोग भोजन तथा अन्य आवश्यक चीज़ों तक कैसे पहुंचेंगे, जिसकी वजह से इतनी अफ़रातफ़री फैली, मानों ऐसा होने ही वाला था। मध्यम वर्ग के लोग भारी संख्या में दुकानों और बाज़ारों में में पहुंचने लगे – ऐसा करना ग़रीबों के बस की बात नहीं है। उन प्रवासियों के लिए भी नहीं, जो शहर छोड़ गांवों की ओर जा रहे हैं। छोटे विक्रेताओं, घरों में काम करने वालों, खेतिहर मज़दूरों के लिए भी नहीं। उन किसानों के लिए भी नहीं जो रबी की फ़सल काटने में असमर्थ हैं – या जिन्होंने काट तो लिया लेकिन आगे की प्रक्रिया को लेकर फंस गए हैं। हज़ारों, लाखों पिछड़े भारतीयों के लिए भी नहीं।

वित्त मंत्री का पैकेज – जिसकी घोषणा उन्होंने कल, 26 मार्च को की थी – इसमें भी मामूली राहत की बात की गई है: सार्वजनिक वितरण प्रणाली, यानी पीडीएस के तहत जो 5 किलो अनाज पहले से दिया जा रहा है, उसमें वृद्धि करते हुए प्रत्येक व्यक्ति को 5 किलो गेहूं या चावल अगले तीन महीने तक मुफ्त दिया जाएगा। अगर ऐसा होता भी है तो – यह बिल्कुल स्पष्ट नहीं है कि क्या पहले से मिलने वाला या अब मिलने वाला अतिरिक्त 5 किलो अनाज मुफ्त होगा या इसके लिए भुगतान करना होगा। यदि इसके लिए भुगतान किया जाना है, तो यह काम नहीं करेगा। इस ‘पैकेज’ के अधिकांश तत्व पहले से मौजूद योजनाओं के लिए आवंटित रकम हैं। मनरेगा की मज़दूरी में 20 रुपये की वृद्धि वैसे भी लंबित थी – और इसमें अतिरिक्त दिनों का कोई उल्लेख कहां है? और अगर वे एक ही बार में ज़मीन पर उतरते हैं, जबकि यह भी पता नहीं है काम किस प्रकार का होगा, तो सामाजिक दूरी बनाए रखने के मानदंडों को वे कैसे पूरा करेंगे? इतने बड़े पैमाने पर काम उपलब्ध कराने में जितने दिन लगेंगे, उतने हफ्तों तक लोग क्या करेंगे? क्या उनका स्वास्थ्य इस लायक़ होगा? हमें मनरेगा के हर मज़दूर और किसान को तब तक मज़दूरी देते रहना चाहिए जब तक यह संकट बरक़रार है, कोई काम उपलब्ध हो या न हो।

प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पीएम-किसान) के तहत 2,000 रुपये का लाभ पहले से ही था और देय था – इसमें नया क्या है? तिमाही के अंतिम महीने में भुगतान करने के बजाय, इसे आगे बढ़ाकर पहले महीने में कर दिया गया है। वित्त मंत्री ने इस महामारी और लॉकडाउन (तालाबंदी) के जवाब में जो 1.7 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की है, उसमें कहीं पर भी इसका स्पष्ट विवरण नहीं है – इसके नए तत्व क्या हैं? इस राशि का कौन सा हिस्सा पुराना या मौजूदा योजनाओं का है, जिन्हें आपस में जोड़कर यह संख्या तैयार की गई है? वे आपातकालीन उपायों के रूप में शायद ही योग्य हैं। इसके अलावा, पेंशनरों, विधवाओं और विकलांगों को 1,000 रुपये की राशि अगले तीन महीनों तक दो किस्तों में एकमुश्त मिलेगी ? और जन धन योजना के खाते वाली 20 करोड़ महिलाओं में से प्रत्यके को 500 रुपये अगले तीन महीने तक मिलेंगे ? यह टोकन से भी बदतर है, यह अश्लील है।

स्वयं-सहायता समूहों (एसएचजी) के लिए ऋण की सीमा बढ़ा देने से वह स्थिति कैसे बदल जाएगी, जहां मौजूदा ऋण के पैसे हासिल करना पहाड़ खोदने जैसा है? और यह ‘पैकेज’ दूरदराज़ के इलाक़ों में फंसे उन अनगिनत प्रवासी कामगारों की कितनी मदद करेगा, जो अपने घर और गांव लौटने की कोशिश कर रहे हैं? यह दावा कि इससे प्रवासियों की मदद होगी अप्रमाणित है। यदि आपातकालीन उपायों के गंभीर सेट को तैयार करने में विफलता ख़तरनाक है, तो वहीं पैकेज की घोषणा करने वालों का रवैया भयानक है। ऐसा लगता है कि उन्हें ज़मीन पर पैदा हो रही स्थिति का अंदाज़ा नहीं है।

PHOTO • Labani Jangi

इस लेख के साथ ये दोनों चित्र, दिल्ली और नोएडा से उत्तर प्रदेश तथा अन्य जगहों के अपने गांवों लौट रहे प्रवासी मज़दूरों का एक कलाकार की दृष्टि से चित्रण है। कलाकार , लबानी जांगी , एक स्वतः शिक्षित चित्रकार हैं , जो कोलकाता के सेंटर फॉर स्टडीज़ इन सोशल साइंसेज़ में श्रमिकों के प्रवास पर पीएचडी कर रही हैं

हम जिस प्रकार के लॉकडाउन में हैं – असुरक्षितों के लिए बिना किसी गंभीर सामाजिक समर्थन या योजना के साथ – उसके कारण उल्टा प्रवास शुरू हो सकता है, बल्कि पहले ही शुरू हो चुका है। उसके फैलाव या तीव्रता को ठीक कर पाना असंभव है। लेकिन कई राज्यों की रिपोर्टों से पता चलता है कि बड़ी संख्या में लोग अपने गांवों की ओर लौट रहे हैं क्योंकि वे जिन शहरों और कस्बों में काम करते हैं, वहां तालाबंदी है।

उनमें से अब कई एकमात्र उपलब्ध परिवहन का उपयोग कर रहे हैं – यानी अपने स्वयं के पैर। कुछ साइकिल चलाकर घर जा रहे हैं। कुछ लोग तो बीच रास्ते में ही फंस गए जब रेलगाड़ियों, बसों और वाहनों ने काम करना बंद कर दिया। यह डरावना है, एक प्रकार की भयावह स्थिति जिसमें तेज़ी आने पर यह कंट्रोल से बाहर हो सकती है।

ज़रा कल्पना कीजिए ऐसे बड़े समूहों की जो पैदल घर की ओर जा रहे हैं, गुजरात के शहरों से राजस्थान के गांवों तक; हैदराबाद से तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के दूर-दराज़ के गांवों तक; दिल्ली से उत्तर प्रदेश, यहां तक कि बिहार तक; मुंबई से पता नहीं कितने गंतव्यों तक। यदि उन्हें कोई सहायता नहीं मिलती है, तो भोजन और पानी तक उनकी तेज़ी से घटती पहुंच से तबाही मच सकती है। वे डायरिया, हैजा आदि जैसी काफ़ी पुरानी बीमारियों की चपेट में आ सकते हैं।

इसके अलावा, इस बढ़ते आर्थिक संकट के कारण जिस प्रकार की स्थिति बन सकती है, उससे कामकाजी और युवाओं की आबादी के बीच बड़ी संख्या में मौत की संभावना है। जैसा कि पीपुल्स हेल्थ मूवमेंट के वैश्विक समन्वयक, प्रो. टी. सुंदररमण ने पारी को बताया, “स्वास्थ्य सेवाएं ऐसी हैं कि इस आर्थिक संकट की वजह से, हम कोरोना वायरस के अलावा अन्य बीमारियों से होने वाली मौतों से तबाह हो सकते हैं।”

जिन लोगों की उम्र 60 साल या उससे ज़्यादा है, ऐसी आबादी के 8 प्रतिशत लोगों को कोरोना वायरस से सबसे अधिक खतरा है। अन्य बीमारियों के फैलने के साथ-साथ बहुत सी आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच को सीमित और कम कर देने से, काम करने वाले लोगों और युवा आबादी को भारी नुकसान हो सकता है।”

डॉ. सुंदररमण, राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणाली संसाधन केंद्र के पूर्व कार्यकारी निदेशक ज़ोर देकर कहते हैं कि इस बात की सख़्त ज़रूरत है कि “उल्टी दिशा में प्रवास की समस्या और आजीविका के नुकसान की पहचान और उन पर कार्रवाई की जाए। ऐसा नहीं करने पर, जिन बीमारियों से किसी ज़माने में बड़े पैमाने पर ग़रीब भारतीयों की मौत हो जाया करती थी, अब कोरोना वायरस के कारण ऐसे लोगों की उससे ज़्यादा मौत हो सकती है।” विशेष रूप से अगर उल्टी दिशा में प्रवास बढ़ता है – तो भूख से ग्रसित शहरों के प्रवासी मज़दूरों को मामूली मज़दूरी भी नहीं मिल पाएगी।

PHOTO • Rahul M.

थके हुए प्रवासी मज़दूर जो हर सप्ताह आंध्र प्रदेश के अनंतपुर और केरल के कोच्चि के बीच आते-जाते रहते हैं

कई प्रवासी अपने कार्य स्थलों पर रहते हैं। अब जबकि वे सारे स्थल बंद कर दिए गए हैं, और उन्हें वहां से चले जाने को कह दिया गया है – वे कहां जाएंगे? उनमें से सभी इतनी लंबी दूरी पैदल तय नहीं कर सकते। उनके पास राशन कार्ड नहीं है – आप उन तक भोजन कैसे पहुंचाएंगे?

आर्थिक संकट पहले से ही गति पकड़ रहा है।

एक और बात जो सामने आ रही है, वह हाउसिंग सोसायटियों द्वारा प्रवासी मज़दूरों, घरेलू कामगारों, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों और अन्य ग़रीबों को दोषित ठहराना है क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि असली समस्या यही लोग हैं। जबकि सच्चाई यह है कि कोविड-19 को लाने वाले वे लोग हैं, जो हवाई जहाज़ों से सफ़र करते हैं – यानी हम जैसे लोग, जो इससे पहले एसएआरएस भी ला चुके हैं। इस तथ्य को स्वीकार करने की बजाय, ऐसा लगता है कि हम इन अवांछनीय तत्वों को हटाकर शहरों को पवित्र करने का प्रयास कर रहे हैं। ज़रा सोचें: यदि हवाई यात्रियों में से किसी ने घर लौट रहे प्रवासियों में से किसी को संक्रमित कर दिया हो – तो उनके गांवों पहुंचने के बाद इसका क्या परिणाम हो सकता है?

कुछ प्रवासी मज़दूर, जो उसी राज्य में या पड़ोसी राज्यों में काम करते हैं, वे हमेशा अपने गांवों वापस लौटते रहे हैं। पारंपरिक तरीका यह था कि अपना भोजन अर्जित करने के लिए मार्ग के किनारे स्थित चाय की दुकानों और ढाबों पर काम किया जाए – रात में वहीं सो लिया जाए। अब, उनमें से अधिकांश बंद हो चुके हैं – तो क्या होता है?

किसी तरह से, ख़ुशहाल और मध्यम वर्ग के लोग आश्वस्त हैं कि अगर हम घर पर रहेंगे और सामाजिक दूरी बनाए रखेंगे, तो सब ठीक हो जाएगा। कि, कम से कम, हम वायरस से दूर रहेंगे। इस बात की कोई चिंता नहीं है कि आर्थिक संकट का हमारे ऊपर किस तरह का प्रभाव पड़ेगा। कई लोगों के लिए, ‘सामाजिक दूरी’ के अलग मायने निकल कर आते हैं। हमने इसके सबसे शक्तिशाली रूप का आविष्कार लगभग दो सहस्राब्दी पहले किया था – जाति। वर्ग और जाति के कारक हमारी तरह के लॉकडाउन की प्रतिक्रिया में अंतर्निहित प्रतीत होते हैं।

एक राष्ट्र के रूप में हमारे लिए यह मायने नहीं रखता है कि तपेदिक (टीबी) से हर साल लगभग ढाई लाख भारतीयों की मौत हो जाती है। या यह कि डायरिया (दस्त) से सालाना 100,000 बच्चों की जान चली जाती है। वे हम नहीं हैं। दहशत तब फैलती है, जब सुंदर लोगों को पता चलता है कि उन्हें कुछ घातक बीमारियों से छुटकारा नहीं मिल पाएगा। एसएआरएस के साथ भी ऐसा ही हुआ था। वैसा ही 1994 में सूरत में प्लेग के साथ हुआ था। दोनों ही भयानक बीमारियां थीं, जिसने भारत में बहुत कम लोगों को मौत के घाट उतारा, हालांकि वे इससे कहीं ज़्यादा तबाही फैला सकती थीं। लेकिन उन्होंने बहुत ज़्यादा ध्यान आकर्षित किया। जैसा कि मैंने सूरत में उस समय लिखा था: “प्लेग के कीटाणु काफ़ी बदनाम हैं कि वे वर्गों के बीच कोई भेदभाव नहीं करते…और इससे भी ज़्यादा ख़राब बात यह है कि वे विमान पर चढ़ सकते हैं और क्लब वाले वर्ग के साथ न्यूयॉर्क तक जा सकते हैं।”

PHOTO • Jyoti Shinoli

माहुल गांव , चेंबूर , मुंबई में सफ़ाईकर्मी संभवत: ज़हरीले कचरे के बीच न्यूनतम सुरक्षा के साथ काम करते हैं

हमें त्वरित कार्रवाई करने की ज़रूरत है। हम केवल एक वायरस से नहीं लड़ रहे हैं – महामारी भी एक ‘पैकेज’ है। जिसमें से आर्थिक संकट आत्म-पीड़ित या आत्म-उत्तेजित भाग हो सकता है – जो हमें आपदा से विपत्ति की ओर ले जा रहा है

यह विचार कि हम सिर्फ़ एक वायरस से लड़ रहे हैं, और इसमें सफ़लता मिल जाने के बाद सब ठीक हो जाएगा – ख़तरनाक है। निश्चित रूप से, हमें कोविड-19 से लड़ने की सख्त ज़रूरत है – यह वर्ष 1918 और ग़लत नाम वाले ‘स्पैनिश फ़्लू’ के बाद से अब तक की सबसे ख़राब महामारी हो सकती है। (उसकी वजह से वर्ष 1918-21 के बीच भारत में 16-21 मिलियन लोगों की मृत्यु हुई। वास्तव में, 1921 की जनगणना एकमात्र ऐसी जनगणना है जिसने ग्रामीण आबादी में इतनी बड़ी कमी दर्ज की है)।

लेकिन बड़े कैन्वस को दरकिनार करते हुए केवल कोविड-19 पर ध्यान केंद्रित करना वैसा ही है जैसे सभी नलों से पानी चलाकर पोंछे से फ़र्श को सुखाने की कोशिश करना। हमें ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली, अधिकारों और पात्रता को मज़बूत करने वाले विचारों को आगे बढ़ाए।

स्वास्थ्य क्षेत्र के कुछ महान दिमागों ने, 1978 में, अल्मा आता घोषणा-पत्र तैयार किया – उन दिनों में जब डब्ल्यूएचओ पर पश्चिमी सरकार द्वारा समर्थित कॉर्पोरेट हितों का कोई दबाव नहीं था। यही वह घोषणा-पत्र था जिसने ‘2000 तक सभी के लिए स्वास्थ्य’ वाक्यांश को प्रसिद्ध किया। इसका मानना था कि दुनिया के सभी लोग “विश्व के संसाधनों के पूर्ण और बेहतर उपयोग के माध्यम से” कुछ ना कुछ प्राप्त कर सकते हैं...”

और 80 के दशक से, स्वास्थ्य के सामाजिक और आर्थिक निर्धारकों को समझने का विचार बढ़ रहा था। लेकिन इसके साथ ही, एक और विचार बढ़ रहा था। काफ़ी तेज़ी से: नवउदारवाद।

80 के दशक के अंत और 90 के दशक से, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़गार का विचार – क्योंकि मानवाधिकारों को दुनिया भर में रौंदा जा रहा था।

1990 के दशक के मध्य में संचारी रोगों का वैश्वीकरण हुआ। लेकिन इस घातक चुनौती को पूरा करने के लिए सार्वभौमिक स्वास्थ्य प्रणाली तैयार करने के बजाय, कई देशों ने अपने स्वास्थ्य क्षेत्रों का निजीकरण किया। भारत में, हमेशा निजी प्रभुत्व था। हम दुनिया में स्वास्थ्य पर सबसे कम ख़र्च करने वाले देशों में से एक हैं – (जीडीपी के हिस्से के रूप में) केवल 1.2 प्रतिशत। 1990 के दशक से, सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली, जो कभी भी बहुत मज़बूत नहीं थी, जानबूझकर किए गए नीति-संचालित उपायों से और कमज़ोर होती चली गई। वर्तमान सरकार जिला स्तर के अस्पतालों के लिए भी निजी प्रबंधन वाले अधिग्रहण को आमंत्रित कर रही है।

आज भारत भर में स्वास्थ्य संबंधी ख़र्च संभवतः ग्रामीण परिवार के ऋण का सबसे तेज़ी से बढ़ता घटक है। जून 2018 में, पब्लिक हेल्थ फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया ने स्वास्थ्य संबंधी विविध आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए निष्कर्ष निकाला कि अकेले वर्ष 2011-12 में 55 मिलियन लोग ग़रीबी में धकेल दिए गए थे, क्योंकि उन्हें अपने स्वयं के स्वास्थ्य के लिए पैसे का इंतज़ाम करना पड़ा था – यह भी कहा गया कि इनमें से 38 मिलियन अकेले दवाइयों पर ख़र्च करने के कारण ग़रीबी रेखा से नीचे आ गए थे।

भारत भर में किसानों की आत्महत्याओं की चपेट में आने वाले कई हज़ार परिवारों में से एक सबसे आम बात है: स्वास्थ्य पर ख़र्च होने वाले अत्यधिक पैसे, जिसका इंतज़ाम अक्सर साहूकार से उधार लेकर किया जाता है।

PHOTO • M. Palani Kumar

किसी दूसरी जगह पर मौजूद अपने समकक्षों की तरह , चेन्नई के संविदा सफाई कर्मचारी बहुत ही कम या किसी गंभीर सुरक्षा के बिना काम करते हैं

हमारे पास सबसे बड़ी आबादी है, जिसके पास कोविड-19 जैसे संकट से निपटने के लिए सबसे कम संसाधन हैं। और यह है त्रासदी: आने वाले वर्षों में कोविड अन्य नामों से होंगे। 90 के दशक के उत्तरार्ध से हमने एसएआरएस और एमईआरएस (दोनों ही कोरोना वायरस से) और वैश्विक स्तर पर फैलने वाली अन्य बीमारियों को देखा है। भारत में 1994 में, हमने सूरत में प्लेग देखा। ये सभी इस बात के इशारे थे कि आगे क्या आने वाला है, उस तरह की दुनिया से जिसका हमने निर्माण और उसमें प्रवेश किया था।

जैसा कि हाल ही में ग्लोबल वायरोम प्रोजेक्ट के प्रो. डेनिस कैरोल ने कहा: “ हम उस पारिस्थितिकी क्षेत्र के काफ़ी भीतर घुस गए हैं जहां हम पहले कभी नहीं गए थे…।” उन इलाक़ों में तेल और खनिज के उत्खनन की गतिविधियों की क़ीमत चुकानी पड़ी है, जहां पहले इंसानों की आबादी कम हुआ करती थी, वह कहते हैं। नाज़ुक पारिस्थितिक तंत्रों में हमारी घुसपैठ ने न केवल जलवायु परिवर्तन, बल्कि संभावित स्वास्थ्य आपदाओं को भी जन्म दिया है क्योंकि वन्यजीवों के साथ इंसानों का संपर्क उन वायरस के संक्रमण के फैलने की संभावना को बढ़ाता है, जिनके बारे में हम बहुत कम या कुछ भी नहीं जानते।

तो हां, हम और भी देखने जा रहे हैं।

जहां तक कोविड-19 की बात है, तो यह दो तरीक़ों से समाप्त हो सकता है।

या तो यह वायरस (हमारी भलाई के लिए) अपना रूप बदल ले और कुछ हफ्तों में ही मर जाए।

या: वह ख़ुद अपनी भलाई के लिए रूप बदल ले, फिर तबाही मचाना शुरू कर दे। यदि ऐसा होता है, तो स्थिति कंट्रोल से बाहर हो जाएगी।

हम क्या कर सकते हैं? मैं निम्नलिखित सुझाव देता हूं – उन लोगों से बिल्कुल अलग हटकर, या उन्हीं के साथ और उनके सुझावों से मिलता-जुलता, जो भारत में बेहतरीन दिमाग़ रखने वाले कुछ कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की ओर से पहले ही पेश किया जा चुके हैं। (ऐसे विचार भी हैं जो ऋण, निजीकरण और वित्तीय बाज़ार की विफलता के एक बड़े वैश्विक संदर्भ में क़दम उठाए जाने की बात करते हैं)। और प्रेरणादायक के रूप में स्वीकार करते हुए, केरल सरकार ने कुछ उपायों की घोषणा की।

  • सबसे पहली चीज़ जो करने की ज़रूरत है: हमारे 60 मिलियन टन ‘अधिशेष’ खाद्यान्न के भंडार के आपातकालीन वितरण की तैयारी। और इस संकट से तबाह हो चुके लाखों प्रवासी मज़दूरों और अन्य गरीबों तक तुरंत पहुंचना। वर्तमान में बंद सभी सामुदायिक स्थानों (स्कूल, कॉलेज, सामुदायिक हॉल और भवन) को बीच में फंसे प्रवासियों और बेघरों के लिए आश्रय स्थल घोषित करें।
  • दूसरा – जो कि समान रूप से महत्वपूर्ण है – सभी किसानों को ख़रीफ के मौसम में खाद्य फ़सलें उगाने दें । यदि वर्तमान प्रवृत्ति बनी रहती है, तो खाद्य की एक भयानक स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। इस सीज़न की नक़दी फसलें काटने के बाद वे उन्हें बेच नहीं पाएंगे। ऊपर से आगे भी नक़दी फसलें उगाना घातक साबित हो सकता है। ऐसा नहीं लगाता कि आने वाले कई महीनों में कोरोना वायरस का टीका/इलाज ढूंढ लिया जाएगा। इस बीच खाद्य भंडार घटने लगेगा।
  • सरकारों को किसानों की उपज को उठाने और ख़रीदने में तेज़ी लानी चाहिए और इसमें उनकी मदद करनी चाहिए। बहुत से किसान रबी की फ़सल को पूरा करने में असमर्थ रहे हैं – इसलिए कि देश भर में सामाजिक दूरी और तालाबंदी लागू है। जिन लोगों ने अपनी फ़सलें काट ली हैं, वे उन्हें न तो कहीं ले जा सकते और न ही बेच सकते हैं। ख़रीफ़ के मौसम में भी खाद्य फसलों के उत्पादन के लिए, किसानों को इनपुट, सहायता सेवाओं और विपणन सहायता वाले पारिस्थितिकी तंत्र की आवश्यकता होगी।
  • सरकार को देश भर की निजी चिकित्सा सुविधाओं का राष्ट्रीयकरण करने के लिए तैयार रहना चाहिए। अस्पतालों को केवल अपने अंदर ‘कोरोना कॉर्नर’ बनाने की सलाह दे देने से ही काम नहीं चलेगा। स्पेन ने पिछले सप्ताह अपने सभी अस्पतालों और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को राष्ट्रीयकृत कर दिया था, इस बात को स्वीकार करते हुए कि लाभ-संचालित प्रणाली से इस संकट का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता।
  • सफ़ाई कर्मचारियों को सरकारों / नगर पालिकाओं के पूर्णकालिक कर्मचारियों के रूप में तत्काल नियोजित किया जाना चाहिए, उनके मौजूदा वेतन में 5,000 रुपये मासिक की बढ़ोतरी की जानी चाहिए, और चिकित्सा संबंधी सभी लाभ दिए जाने चाहिएं जिसको देने से हमेशा मना किया जाता रहा है। और सुरक्षात्मक उपकरण की आपूर्ति होनी चाहि, जो उन्हें कभी नहीं दिया गया। हमने असुरक्षित स्वच्छता कर्मचारियों के लाखों लोगों को तबाह करते हुए तीन दशक पहले ही गुज़ार दिए, उन्हें सार्वजनिक सेवा से बाहर कर दिया, उनकी नौकरियां निजी संस्थाओं को आउटसोर्स कर दीं – जिन्होंने दुबारा उन्हीं श्रमिकों को अनुबंध पर, कम वेतन और बिना किसी लाभ के नौकरी पर रखा।
  • ग़रीबों को तीन महीने के लिए मुफ्त राशन की घोषणा करें और उन्हें पहुंचाएं।
  • आशा, आंगनवाड़ी और मिड-डे मील कामगारों को – जो पहले से ही इस लड़ाई के मोर्चे पर हैं – सरकारी कर्मचारी के रूप में नियमित करें। भारत के बच्चों का स्वास्थ्य और जीवन उन्हीं के हाथों में है। उन्हें भी पूर्ण कर्मचारी बनाया जाना चाहिए, उचित वेतन और सुरक्षात्मक उपकरण दिया जाना चाहिए।
  • वर्तमान संकट के दूर होने तक किसानों और मज़दूरों को रोज़ाना मनरेगा की मज़दूरी दें। इस अवधि में शहर के दिहाड़ी मज़दूरों को 6,000 रुपये प्रति माह दिया जाए।

हमें इन उपायों को तुरंत लागू करने की ज़रूरत है। सरकार का पैकेज निर्दयता और अनभिज्ञता का मिश्रण है। हम केवल एक वायरस से नहीं लड़ रहे हैं महामारी भी एक पैकेज है। जिसमें से आर्थिक संकट आत्म - पीड़ित या आत्म - उत्तेजित भाग हो सकता है जो हमें आपदा से विपत्ति की ओर ले जा रहा है।

अगर वायरस का प्रकोप अगले दो हफ्तों तक बरक़रार रहता है, तो किसानों से ख़रीफ़ के मौसम में खाद्य फ़सलें उगाने का आग्रह करना सबसे महत्वपूर्ण काम हो जाएगा।

साथ ही, क्या हम दूर खड़े होकर यह देख सकते हैं कि कोविड-19 असाधारण रूप से इतिहास का एक भविष्यसूचक क्षण है? एक ऐसा स्थान जहां से हम यह तय करें कि हमें किस ओर जाना है। एक ऐसा क्षण जिसमें हम असमानता और स्वास्थ्य संबंधी न्याय पर बहस को शुरू करें और उसे आगे तक ले जाएं।

इस लेख का एक संस्करण पहली बार 26 मार्च , 2020 को द वायर में प्रकाशित हुआ था।

हिंदी अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़

P. Sainath
psainath@gmail.com

P. Sainath is Founder Editor, People's Archive of Rural India. He has been a rural reporter for decades and is the author of 'Everybody Loves a Good Drought'.

Other stories by P. Sainath
Translator : Mohd. Qamar Tabrez
dr.qamartabrez@gmail.com

Mohd. Qamar Tabrez is the Translations Editor, Hindi/Urdu, at the People’s Archive of Rural India. He is a Delhi-based journalist, the author of two books, and was associated with newspapers like ‘Roznama Mera Watan’, ‘Rashtriya Sahara’, ‘Chauthi Duniya’ and ‘Avadhnama’. He has a degree in History from Aligarh Muslim University and a PhD from Jawaharlal Nehru University, Delhi.

Other stories by Mohd. Qamar Tabrez