यह स्टोरी जलवायु परिवर्तन पर आधारित पारी की उस शृंखला का हिस्सा है जिसने पर्यावरण रिपोर्टिंग की श्रेणी में साल 2019 का रामनाथ गोयनका अवॉर्ड जीता है.

मछुआरा समुदाय की औरतें सुबह के 3 बजे उठा जाती हैं, ताकि 5 बजे तक काम शुरू कर सकें. उससे पहले उन्हें अपने घर का काम भी पूरा करना पड़ता है. उनके काम करने की इस विशाल जगह की दूरी घर से बहुत ज़्यादा नहीं है, जहां वे पैदल चलकर जाती हैं. वे अपने घरों से निकलती हैं, समुद्र तक पहुंचती हैं, और उसके अंदर गोते लगाना शुरू कर देती हैं.

कभी-कभी वे नाव से पास के द्वीपों पर जाती हैं, और वहां समंदर के पानी में गोते लगाती हैं. वे अगले 7-10 घंटों तक बार-बार ऐसा करती हैं. हर गोते के बाद जब वे ऊपर आती हैं, तो अपने साथ समुद्री शैवाल का बंडल निकालकर लाती हैं, मानो उनका जीवन इसी पर टिका हो – और यही सच्चाई भी है. तमिलनाडु के रामनाथपुरम ज़िले के भारतीनगर की मछुआरा बस्ती की औरतों द्वारा समंदर में गोते लगाकर, समुद्री पौधे, और शैवाल इकट्ठा करना ही उनकी कमाई का मुख्य ज़रिया है.

काम के दिन, वे कपड़े और जालीदार थैलों के साथ 'सुरक्षा उपकरण' भी साथ लेकर चलती हैं. नाविक जहां एक तरफ़ उन्हें समुद्री शैवाल से भरे द्वीपों पर ले जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ महिलाएं अपनी साड़ियों को धोती की तरह टांगों के बीच से बांध लेती हैं, जालीदार थैलों को अपनी कमर के चारों ओर लपेटती हैं, और अपनी साड़ियों के ऊपर टी-शर्ट पहनती हैं. ‘सुरक्षा’ उपकरण में उनकी आंखों के लिए गॉगल, उंगलियों पर लपेटने के लिए कपड़े की पट्टियां या सर्जिकल दस्ताने शामिल होते हैं; साथ ही, रबर की चप्पलें भी शामिल होती हैं, ताकि उनके पैर धारदार चट्टानों से कटें न. इनका उपयोग वे हर समय करती हैं, चाहे खुले समुद्र में हों या द्वीपों के आसपास.

समुद्री शैवाल इकट्ठा करना इस क्षेत्र का एक पारंपरिक व्यवसाय है, जो पीढ़ियों से मां से बेटी को विरासत में मिलता आ रहा है. कुछ अकेली और निराश्रित महिलाओं के लिए, यह आय का एकमात्र ज़रिया है.

तेज़ी से कम होते समुद्री शैवाल के कारण यह आय घटती जा रही है, जिसके पीछे का कारण तापमान में वृद्धि, समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी, बदलते मौसम और जलवायु व इस संसाधन का अत्यधिक दोहन है.

42 वर्षीय पी. रक्कम्मा यहां काम करने वाली अन्य महिलाओं की तरह ही भारतीनगर की रहने वाली हैं, जो तिरुपुल्लानी ब्लॉक के मायाकुलम गांव के पास स्थित है. वह बताती हैं, "समुद्री शैवाल का बढ़ना अब बेहद कम हो गया है. यह हमें अब उतनी मात्रा नहीं मिल रही है जितनी पहले मिला करती थी. अब कभी-कभी हमारे पास महीने में केवल 10 दिनों का ही काम होता है.” यह तथ्य देखते हुए कि साल में केवल पांच महीने ही ऐसे होते हैं जब महिलाओं द्वारा व्यवस्थित तरीक़े से शैवाल इकट्ठा किए जाते हैं, यह एक झटका है. रक्कम्मा को लगता है कि दिसंबर 2004 की “सुनामी के बाद से लहरें ज़्यादा मजबूत हो गई हैं और समुद्र का स्तर बढ़ गया है.”

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समुद्री शैवाल इकट्ठा करना इस क्षेत्र का एक पारंपरिक व्यवसाय है जो मां से बेटी को विरासत में मिलता है; यहां, यू. पंचावरम, भित्तियों से समुद्री शैवाल इकट्ठा कर रही हैं

ऐसे बदलाव ए. मूकुपोरी जैसी हार्वेस्टर को नुक़्सान पहुंचा रहे हैं, जो आठ साल की उम्र से ही समुद्री शैवाल इकट्ठा करने के लिए गोता लगा रही हैं. वह जब बहुत छोटी थीं, तो उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई थी, और रिश्तेदारों ने उनकी शादी एक शराबी से कर दी थी. अब 35 वर्ष की उम्र में मूकुपोरी की तीन बेटियां हैं, लेकिन वह अभी भी अपने पति के साथ रहती हैं; हालांकि वह कुछ भी कमाने और परिवार की सहायता करने की स्थिति में नहीं है.

अपने घर के अकेले कमाऊ सदस्य के तौर पर वह बताती हैं कि अपनी तीन बेटियों को आगे पढ़ाने में मदद करने के लिए, “अब शैवाल से होने वाली कमाई काफ़ी नहीं है.” उनकी सबसे बड़ी बेटी बीकॉम की पढ़ाई कर रही है. दूसरी बेटी कॉलेज में दाख़िले का इंतज़ार कर रही है. सबसे छोटी बेटी छठी कक्षा में है. मूकुपोरी को डर है कि चीज़ें "जल्दी ठीक नहीं होने वाली.”

वह और उनकी साथी हार्वेस्टर मुथुरियार समुदाय से ताल्लुक़ रखती हैं, जिन्हें तमिलनाडु में सबसे पिछड़े समुदाय (एमबीसी) के रूप में वर्गीकृत किया गया है. रामनाथपुरम मछुआरा संगठन के अध्यक्ष, ए. पलसामी का अनुमान है कि तमिलनाडु के 940 किलोमीटर के तट पर, समुद्री शैवाल इकट्ठा करने वाली महिलाओं की संख्या 600 से ज़्यादा नहीं है. लेकिन, वे जो काम करती हैं उस पर बहुत बड़ी आबादी निर्भर करती है, जो केवल तमिलनाडु तक सीमित नहीं है.

42 वर्षीय पी. रानीअम्मा समझाती हैं, “शैवाल का इस्तेमाल अगार बनाने में किया जाता है.” अगार जिलेटिन जैसा पदार्थ है, जिसे खाद्य पदार्थों को गाढ़ा बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है.

यहां से प्राप्त समुद्री शैवाल का फ़ूड इंडस्ट्री में, कुछ फ़र्टिलाइज़र्स में एक घटक के रूप में, फ़ार्मा कंपनियों द्वारा दवाइयां बनाने में, और दूसरे कामों के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है.महिलाएं समुद्री शैवाल को इकट्ठा करके सुखाती हैं, जिसे बाद में मदुरई ज़िले की फ़ैक्ट्रियों में प्रसंस्करण के लिए भेजा जाता है. इस क्षेत्र में शैवाल की दो प्रमुख किस्में हैं: मट्टकोरई (gracilaria) और मरिकोझुन्तु (gelidium amansii). जेलिडियम को कभी-कभी सलाद, पुडिंग, और जैम के रूप में भी परोसा जाता है. यह उन लोगों के लिए उपयोगी माना जाता है जो डाइटिंग कर रहे हैं; और कभी-कभी कब्ज़ को दूर करने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाता है. मट्टकोरई (gracilaria) का उपयोग कपड़े की रंगाई के साथ-साथ, अन्य औद्योगिक प्रावधानों में भी किया जाता है.

हालांकि, उद्योगों में इतने बड़े स्तर पर समुद्री शैवाल के लोकप्रिय इस्तेमाल ने इसके अत्यधिक दोहन को भी जन्म दिया है. केंद्रीय नमक और समुद्री रसायन अनुसंधान संस्थान (मंडपम कैम्प, रामनाथपुरम) ने बताया है कि असिंचित तरीके से शैवाल को इकट्ठा करने के कारण इसकी उपलब्धता में भारी गिरावट आई है.

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पी. रानीअम्मा शैवाल की एक किस्म मरिकोझुन्तु के साथ, जो खाने में इस्तेमाल होती है

आज की मात्रा इस गिरावट को दिखाती है.  45 वर्षीय एस अमृतम कहती हैं, “पांच साल पहले, हम सात घंटे में कम से कम 10 किलोग्राम मरिकोझुन्तु इकट्ठा कर लेते थे. लेकिन अब एक दिन में 3-4 किलो से ज़्यादा नहीं मिलता. इसके अलावा, समुद्री शैवाल का आकार भी पिछले कुछ वर्षों में छोटा हो गया है.”

इससे जुड़े उद्योगों में भी कमी आई है. ज़िले में समुद्री शैवाल के प्रसंस्करण की एक कंपनी के मालिक ए बोस कहते हैं, साल 2014 के अंत तक, मदुरई में अगार की 37 इकाइयां थीं. वह बताते हैं कि आज ऐसी केवल 7 इकाइयां रह गई हैं, और वे अपनी कुल क्षमता के केवल 40 प्रतिशत पर ही काम कर रही हैं. बोस, अखिल भारतीय अगार और अल्गिनेट निर्माता कल्याणकारी मंडल के अध्यक्ष हुआ करते थे; अब सदस्यों की कमी के कारण यह संगठन पिछले दो वर्षों से काम नहीं कर रहा है.

चार दशकों से समुद्री शैवाल इकट्ठा करने का काम कर रही 55 वर्षीय एम मरियम्मा कहती हैं, “हमें जितने दिनों तक काम मिलता था उसकी संख्या भी कम हो गई है. "शैवाल का सीज़न न होने पर हमें नौकरी के कोई अन्य अवसर भी नहीं मिलते हैं.”

मरियम्मा जब साल 1964 में जन्मी थीं, उस समय मायाकुलम गांव में एक साल में ऐसे 179 दिनों रहे जब तापमान 38 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक पहुंच जाए. वर्ष 2019 में, वहां 271 दिन इतने गर्म रहे, यानी 50 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि. इस साल जुलाई में न्यूयॉर्क टाइम्स द्वारा ऑनलाइन पोस्ट किए गए जलवायु और ग्लोबल वार्मिंग पर आधारित टूल से की गई गणना के अनुसार, अगले 25 सालों में यह क्षेत्र साल में ऐसे 286 से 324 दिन देख सकता है. इसमें कोई शक नहीं है कि समुद्र भी गर्म हो रहे हैं.

इन सभी बातों का प्रभाव भारतीनगर के मछुआरों तक ही सीमित नहीं है. जलवायु परिवर्तन पर इंटरगवर्नमेंटल  पैनल की ताज़ा रिपोर्ट (आईपीसीसी) उन अध्ययनों का उल्लेख करती है, जो समुद्री शैवाल को जलवायु परिवर्तन कम करने के संभावित महत्वपूर्ण कारक के रूप में देखते हैं. यह रिपोर्ट कहती है: “समुद्री शैवाल से जुड़ी कृषि प्रक्रिया, रिसर्च की ज़रूरत की ओर इशारा करती है.”

कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय में समुद्र विज्ञान विभाग के प्रोफ़ेसर तुहिन घोष उस रिपोर्ट के प्रमुख लेखकों में से एक थे. उनके विचार मछुआरा समुदाय की इन महिलाओं के बयान से प्रमाणित होते हैं जो अपनी पैदावार में गिरावट की बात कह रही हैं. उन्होंने फ़ोन पर पारी को बताया, “केवल समुद्री शैवाल ही नहीं, बल्कि बहुत सी अन्य प्रक्रियाओं में भी गिरावट या वृद्धि देखने को मिल रही है [जैसे पलायन]. यह बात मछलियों की पैदावार , प्रॉन सीड की पैदावार, और समुद्र व ज़मीन, दोनों से जुड़ी कई चीज़ों पर लागू होती है, जिनमें केकड़ा जमा करना, शहद इकट्ठा करना, पलायन ( जैसा कि सुंदरबन में देखा गया है ) आदि भी शामिल है.”

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कभी-कभी यहां से महिलाएं पास के द्वीपों पर नाव से जाती हैं जहां वे पानी के भीतर गोता लगाती हैं

प्रोफ़ेसर घोष कहते हैं कि मछुआरा समुदाय स्थितियों के बारे में जो कह रहा है उसमें दम है. “हालांकि, मछलियों के मामले में, यह सिर्फ़ जलवायु परिवर्तन का मामला नहीं है, बल्कि जाल से मछली पकड़ने वाले जहाज़ों और औद्योगिक पैमाने पर मछली पकड़ने का व्यापार भी दोष में  है. इस वजह से पारंपरिक मछुआरों द्वारा सामान्य जलस्रोतों से मछली पकड़ने के काम में भी गिरावट तेज़ी से आई है.”

हालांकि, जाल वाले जहाज़ समुद्री शैवाल को प्रभावित नहीं कर सकते, लेकिन इनका औद्योगिक दोहन निश्चित रूप से बुरा असर डाल रहा है. भारतीनगर की महिलाएं और उनकी साथी हार्वेस्टर ने इस प्रक्रिया में छोटी, लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए काफ़ी चिंतन किया है. उनके साथ काम करने वाले कार्यकर्ताओं और शोधकर्ताओं का कहना है कि कम होती पैदावार से चिंतित होकर, उन्होंने आपस में बैठकें कीं और व्यवस्थित कटाई को जुलाई महीने से पांच महीने तक सीमित रखने का फ़ैसला किया. इसके बाद तीन महीने तक, वे समुद्र के चक्कर बिल्कुल भी नहीं लगाती हैं, जिससे समुद्री शैवाल को दोबारा बढ़ने का मौका मिलता है. मार्च से जून तक, वे शैवाल ज़रूर इकट्ठा करती हैं, लेकिन महीने में केवल कुछ ही दिनों के लिए. सीधे शब्दों में कहें, तो महिलाओं ने ख़ुद की एक व्यवस्था स्थापित ली है.

यह एक विचारशील नज़रिया है, लेकिन इसके लिए उन्हें कुछ क़ीमत चुकानी पड़ती है. मरियम्मा कहती हैं, “मछुआरा समुदाय की महिलाओं को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत काम नहीं दिया जाता है. शैवाल इकट्ठा करने सीज़न के दौरान भी, हम एक दिन में मुश्किल से 100-150 रुपए कमाते हैं.” सीज़न के दौरान, हर महिला एक दिन में 25 किलोग्राम तक समुद्री शैवाल इकट्ठा कर सकती है, लेकिन इसके लिए मिलने वाली दर (इसमें भी गिरावट आ रही है) उनके द्वारा समुद्र से लाए गए शैवाल की किस्म के आधार पर अलग-अलग होती है.

नियमों और क़ानूनों में बदलाव ने मामले को और भी जटिल बना दिया है. साल 1980 तक, वे काफ़ी दूर तक के द्वीपों पर जा सकती थीं, जैसे कि नल्लथीवु, चल्ली, उप्पुथन्नी; इनमें से कुछ की दूरी नाव से तय करने में दो दिन लग जाते हैं. वे घर लौटने से पहले समुद्री शैवाल इकट्ठा करने में एक सप्ताह तक का समय बिता सकती थीं. लेकिन उस साल, वे जिन द्वीपों पर गई थीं उनमें से 21 को मन्नार की खाड़ी के समुद्री राष्ट्रीय उद्यान में शामिल कर लिया गया और इस तरह वे सभी वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में आ गए. विभाग ने उन्हें इन द्वीपों पर रुकने की अनुमति देने से मना कर दिया और इन स्थानों पर उनकी पहुंच पर पाबंदी लगा दी है. इस प्रतिबंध के ख़िलाफ़ हुए विरोध को सरकार की तरफ़ से कोई सहानुभूतिपूर्ण प्रतिक्रिया नहीं मिली है. ज़ुर्माने (8,000 रुपए से 10,000 रुपए) के डर से वे उन द्वीपों पर अब नहीं जाती हैं.

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महिलाएं समुद्री शैवाल इकट्ठा करने के लिए जालीदार थैलों का इस्तेमाल करती हैं; इस प्रक्रिया में उन्हें अक्सर चोट लग जाती है और ख़ून भी बहता है, लेकिन उनके लिए भरे थैले हासिल करने का मतलब होता है, अपना परिवार चलाने के लिए कमाई

इस वजह से आय में और कमी आई है. 12 साल की उम्र से समुद्री शैवाल इकट्ठा कर रहीं एस अमृतम कहती हैं, “हम जब उन द्वीपों पर एक हफ़्ता बिताया करते थे, तो कम से कम 1,500 रुपए से 2,000 रुपए तक कमा लेते थे. हमें मट्टकोरई और मरिकोझुन्तु, दोनों ही समुद्री शैवाल मिल जाते थे. अब एक हफ़्ते में 1,000 रुपए कमाना भी मुश्किल है.”

हो सकता है शैवाल इकट्ठा करने वाली महिलाएं जलवायु परिवर्तन पर चल रही बहस के बारे में न जानती हों, लेकिन उन्होंने इसका अनुभव किया है और इसके कुछ प्रभावों को जानती हैं. वे समझ चुकी हैं कि उनका जीवन और पेशा कई बदलावों से गुज़र रहा है. उन्होंने समुद्र, तापमान, मौसम तथा जलवायु के व्यवहार में हुए बदलावों को देखा है और अनुभव किया है. उन्होंने इन बदलावों में मानवीय गतिविधियों की भूमिका (ख़ुद की भूमिका भी) को भी महसूस किया है. इसके साथ ही उनकी कमाई का अकेला ज़रिया, जटिल प्रक्रियाओं के बीच जकड़ा हुआ है. वे जानती हैं कि उन्हें काम के कोई और विकल्प भी नहीं दिए गए हैं, जैसा कि मनरेगा में शामिल न किए जाने के बारे में मरियम्मा की टिप्पणी दर्शाती है.

पानी का स्तर दोपहर से बढ़ना शुरू हो जाता है, इसलिए वे अपना काम समेटना शुरू कर देती हैं. कुछ ही घंटों में, वे इकट्ठा किए गए शैवाल को उन नावों पर वापस ले आई हैं जिनसे वे यहां तक आई थीं; और जालीदार थैले में रखकर उन्हें किनारे पर जमा कर दिया है.

उनका काम बेहद मुश्किल और जोख़िम से भरा हुआ है. समुद्र में जाना कठिन होता जा रहा है, कुछ हफ़्ते पहले ही इस क्षेत्र में एक तूफ़ान के कारण चार मछुआरों की मौत हो गई थी. इसमें से केवल तीन शव ही बरामद हुए थे, और स्थानीय लोगों का मानना ​​है कि हवाएं तभी धीमी होंगी और समुद्र तभी शांत होंगे, जब चौथा शव भी मिल जाएगा.

जैसा कि स्थानीय लोग कहते हैं, हवाओं का साथ मिले बिना, समुद्र से जुड़े सभी काम चुनौतीपूर्ण हैं. जलवायु से जुड़ी परिस्थितियों में बड़े बदलावों के कारण, बहुत सारे दिन अप्रत्याशित होते हैं. फिर भी महिलाएं अपनी आय के इस अकेले स्रोत की तलाश में अशांत पानी में उतर जाती हैं, यह जानते हुए भी कि वे उफ़नते समुद्र में भटक जाती हैं.

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समुद्री शैवाल पाने की ख़ातिर गोता लगाने के लिए नाव को समुद्र में खेना: हवाओं का साथ मिले बिना, समुद्र से जुड़े सभी काम चुनौतीपूर्ण हैं. जलवायु से जुड़ी परिस्थितियों में बड़े बदलावों के कारण, बहुत सारे दिन अप्रत्याशित होते हैं

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समुद्री शैवाल इकट्ठा करने वाली महिला फटे दस्ताने के साथ, जो चट्टानों और अस्थिर पानी की तुलना में एक कमज़ोर सुरक्षा कवच है

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जाल तैयार करना: महिलाओं के सुरक्षा’ उपकरण में गॉगल, हाथों के लिए कपड़े की पट्टियां या सर्जिकल दस्ताने, और  पैरों को धारदार चट्टानों से कटने से बचाने के लिए रबर की चप्पलें शामिल हैं

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एस अमृतम तेज़ लहरों से लड़ते हुए, शैल-भित्ति तक पहुंचने की कोशिश कर रही हैं

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एम मरियम्मा, समुद्री शैवाल इकट्ठा करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले जालीदार थैले की रस्सी को कस रही हैं

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गोता लगाने की तैयारी में

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गोता लगाने के बाद, समुद्र तल की ओर बढ़ते हुए

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समुद्र की गहराई में महिलाओं का कार्यस्थल; पानी के भीतर मछलियों और समुद्री जीवों की एक अपारदर्शी दुनिया

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लंबे पत्तों वाले इस समुद्री शैवाल मट्टकोरई को इकट्ठा किया जाता है, सुखाया जाता है, और फिर कपड़ों की रंगाई में इस्तेमाल किया जाता है

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समुद्र तल पर ठहरने के दौरान, रानीअम्मा कई सेकंड तक अपनी सांस रोककर मरिकोझुन्तु इकट्ठा करती हैं

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फिर सतह पर लौट आती हैं; तेज़ लहरों के बीच, बड़ी मुश्किल से हासिल किए गए अपने शैवाल के साथ

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ज्वार आना शुरू हो गया है, लेकिन महिलाएं दोपहर तक काम करना जारी रखती हैं

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गोता लगाने के बाद, शैवाल इकट्ठा करने वाली एक महिला अपने सुरक्षा कवच को साफ़ करते हुए

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समुद्र तट की ओर लौटते हुए, थकान से चूर

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इन्होंने जो समुद्री शैवाल इकट्ठा किए उन्हें खींचकर किनारे पर लाते हुए

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अन्य लोग गहरे हरे रंग की शैवालों से भरे जालीदार थैलों को नाव पर लाद रहे हैं

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समुद्री शैवाल से भरी एक छोटी नाव किनारे पर लगती है; शैवाल इकट्ठा करने वाली एक महिला, ऐंकर का चलाती है

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समुद्री शैवाल को नाव से नीचे उतारता एक समूह

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आज हुए कलेक्शन का वज़न करते हुए

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समुद्री शैवाल को सुखाने की तैयारी

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अन्य लोग अपने कलेक्शन ले जा रहे हैं; इस बीच सुखाने के लिए समुद्री शैवाल फैलाकर रखा गया

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समुद्र में और पानी के भीतर घंटों बिताने के बाद, ये महिलाएं अपने घरों की ओर वापस जाते हुए

कवर फ़ोटो: ए मूकुपोरी जालीदार थैले को खींच रही हैं. वह अब 35 साल की हो चुकी हैं, और आठ साल की उम्र से ही समुद्री शैवाल इकट्ठा करने के लिए समंदर में गोता लगा रही हैं. (फ़ोटो: एम पलानी कुमार/पारी)

इस स्टोरी में मदद करने के लिए सेंथलिर एस का आभार.

पारी की राष्ट्रव्यापी रिपोर्टिंग का यह प्रोजेक्ट, यूएनडीपी-समर्थित उस पहल का हिस्सा है जिसमें आम लोगों की आवाज़ों और उनके जीवन के अनुभवों के ज़रिए, जलवायु परिवर्तन के असर को रिकॉर्ड किया जाता है.

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अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़

M. Palani Kumar

M. Palani Kumar is PARI's Staff Photographer and documents the lives of the marginalised. He was earlier a 2019 PARI Fellow. Palani was the cinematographer for ‘Kakoos’, a documentary on manual scavengers in Tamil Nadu, by filmmaker Divya Bharathi.

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Translator : Mohd. Qamar Tabrez
dr.qamartabrez@gmail.com

Mohd. Qamar Tabrez is the Translations Editor, Hindi/Urdu, at the People’s Archive of Rural India. He is a Delhi-based journalist, the author of two books, and was associated with newspapers like ‘Roznama Mera Watan’, ‘Rashtriya Sahara’, ‘Chauthi Duniya’ and ‘Avadhnama’. He has a degree in History from Aligarh Muslim University and a PhD from Jawaharlal Nehru University, Delhi.

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