"सिर्फ़ इसलिए कि हम सेक्स वर्कर हैं, वे मान लेते हैं कि हमारा शरीर किसी भी चीज़ की क़ीमत के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है." मीरा (30 वर्ष) अपने तीन बच्चों के साथ साल 2012 में, उत्तरप्रदेश के फ़र्रूख़ाबाद से दिल्ली आई थीं. अचानक दिल का दौरा पड़ने से उनके पति की मृत्यु हो गई थी. वह अब ग़ुस्से में हैं और उतना ही थक भी चुकी हैं.

"जब वे मुझे मेरी दवाइयां देते हैं, तब यही करते हैं.” अमिता (39 साल) का चेहरा, उस याद से घृणा से भर उठता है. वह इशारे में बताती हैं कि अस्पताल में पुरुष सहायक या वॉर्ड सहायक किस तरह उनके साथ छेड़छाड़ करते हैं, कैसे उनके शरीर पर हाथ फेरते हैं. उन्हें उस अपमान का डर रहता है, लेकिन वह चेक-अप या दवाओं के लिए सरकारी अस्पताल जाती हैं.

कुसुम (45 वर्ष) कहती हैं, "जब हम एचआईवी टेस्ट के लिए जाते हैं, और अगर उन्हें मालूम चल जाए कि हम सेक्स वर्कर हैं, वे मदद की पेशकश करते हैं. वे कहते हैं, 'पीछे से आ जाना, दवाई दिलवा दूंगा'. और फिर वे मौक़ा मिलते ही हमें अनुचित तरीक़े से छूते हैं." कुसुम की बात सुनकर, ऑल इंडिया नेटवर्क ऑफ़ सेक्स वर्कर्स (एआईएनएसडब्ल्यू) की पूर्व अध्यक्ष सहित कई लोग सहमति में सर हिलाते हैं. एआईएनएसडब्ल्यू 16 राज्यों के सामुदायिक संगठनों का एक संघ है, जो 4.5 लाख यौनकर्मियों का प्रतिनिधित्व करता है.

उत्तर-पश्चिम दिल्ली ज़िले के रोहिणी इलाक़े में एक सामुदायिक आश्रय में, पारी यौनकर्मियों के एक समूह से मिलता है. इसमें से ज़्यादातर लोगों के पास महामारी की वजह से काम नहीं है. सर्दियों की दोपहर में वे झुंड बनाकर साथ बैठी हैं और खाना खा रही हैं. उनके पास स्टील के टिफ़िन बॉक्स में घर की बनी सब्ज़ी, दाल, और रोटी है.

Sex workers sharing a meal at a community shelter in Delhi's North West district. Many have been out of work due to the pandemic
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उत्तर-पश्चिम दिल्ली ज़िले के एक सामुदायिक आश्रय में भोजन करतीं यौनकर्मी. इनमें से ज़्यादातर के पास महामारी की वजह से काम नहीं है

मीरा कहती हैं कि किसी अकेली सेक्स वर्कर के लिए स्वास्थ्य सेवा हासिल करना और भी मुश्किल होता है.

"ये लोग मुझे दोपहर 2 बजे के बाद अस्पताल आने के लिए कहते हैं. वे कहते हैं, 'मैं तुम्हारा काम करा दूंगा'. ऐसा यूं ही बिना किसी मतलब के नहीं होता. वॉर्ड बॉय, जो हमने सोचा डॉक्टर थे, उनके साथ फ़्री में भी सेक्स किया ताकि दवाई मिल जाए. कई बार हमारे पास कोई विकल्प नहीं होता है और हमें समझौता करना पड़ता है. हम हमेशा लंबी लाइनों में नहीं खड़े रह सकते हैं. हमारे पास वक़्त की सहूलियत नहीं होती. ख़ासकर, जब मुझे किसी ग्राहक से मिलना हो, जोकि अपने सुविधानुसार आएगा. हमें या तो इलाज कराना होता है या भूखे मरना है." मीरा अपनी बात जारी रखती हैं. उनकी आंखों में ग़ुस्सा है, और स्वर में व्यंग्य. "और अगर हम कुछ कहते हैं या आवाज़ उठाते हैं, तो हमें बदनाम किया जाता है कि हम सेक्स वर्कर हैं. फ़िर हमारे लिए कई और दरवाज़े बंद हो जाएंगे.”

इलाक़े के दो सरकारी अस्पताल, पास में रहने वाले सेक्स वर्करों के लिए रोज़ाना दोपहर 12:30 बजे से 1:30 बजे तक एक घंटे का समय देते हैं. यह समय यौनकर्मियों के लिए एचआईवी और अन्य यौन संचारित संक्रमणों (एसटीआई) के परीक्षण के लिए आरक्षित है. यह सुविधा एनजीओ कार्यकर्ताओं के गुज़ारिश करने के बाद इन दोनों अस्पतालों द्वारा शुरू की गई है.

रजनी तिवारी, दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संगठन 'सवेरा' में बतौर वॉलंटियर काम करती हैं. यह संस्था यौन कर्मियों के साथ काम काम करती है. रजनी कहती हैं, "लंबी लाइनों और उनके टेस्ट या इलाज में लगने वाले समय के कारण सेक्स वर्कर भीड़ के साथ क़तार में नहीं लगतीं." यदि क़तार में रहते हुए किसी ग्राहक का कॉल आ जाता है, तो वे बस चली जाती हैं.

रजनी बताती हैं कि उस एक घंटे के दौरान भी डॉक्टर से मिल पाना कभी-कभी मुश्किल होता है. और यह उनके लिए स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी चुनौतियों की शुरुआत भर है.

डॉक्टर केवल एसटीआई के लिए दवाएं लिखते हैं और उपलब्ध कराते हैं. 'दिल्ली स्टेट एड्स कंट्रोल सोसाइटी' की वित्तीय सहायता की मदद से 'सवेरा' जैसे गैर सरकारी संगठनों द्वारा यौनकर्मियों के लिए एचआईवी और सिफ़लिस की टेस्ट किट ख़रीदी जाती है.

A room at the office of an NGO, where a visiting doctor gives sex workers medical advice and information about safe sex practices
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A room at the office of an NGO, where a visiting doctor gives sex workers medical advice and information about safe sex practices
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एक गैर सरकारी संगठन के ऑफ़िस का एक कमरा, जहां एक डॉक्टर यौनकर्मियों को चिकित्सा सलाह देता है और सुरक्षित यौन संबंधों के तरीक़े बताता है

रजनी कहती हैं, "किसी अन्य व्यक्ति की तरह यौनकर्मियों को बुख़ार, सीने में दर्द, और डायबिटीज़ जैसी अन्य बीमारियों का ख़तरा रहता है. और अगर वॉर्ड बॉय को मालूम चल जाए कि वे सेक्स वर्कर्स हैं, तो वे उनका शोषण करते हैं.” रजनी यौनकर्मियों द्वारा बताई गई बातों की पुष्टि करती हैं.

पुरुष कर्मचारियों के लिए, महिला रोगियों के बीच से यौनकर्मियों को पहचानना आसान हो सकता है.

सामुदायिक आश्रय, जहां महिलाएं मिलती हैं, वह अस्पताल से थोड़ी ही दूरी पर है. महामारी से पहले, जब अमिता तैयार होती थीं, तो ग्राहक उन्हें अस्पताल के गेट के सामने ही लेने आते थे, और कुछ पुरुष स्वास्थ्यकर्मी उन्हें देख रहे होते थे.

अमिता कहती हैं, "गार्ड यह भी समझते हैं कि एचआईवी परीक्षण के लिए काग़ज़ की एक विशेष पर्ची लिए खड़े लोग यौनकर्मी हैं. बाद में, जब हम टेस्ट के लिए जाते हैं, तो वे हमें पहचान लेते हैं और एक-दूसरे को बता देते हैं. कभी-कभी, हमें लाइन में खड़े हुए बिना डॉक्टर को दिखाने में मदद के लिए, ग्राहक की ज़रूरत पड़ती है." यहां तक कि डॉक्टर से परामर्श लेने, इलाज कराने, और दवाओं के लिए अलग-अलग लाइनें लगती हैं.

अमिता, दो दशक पहले दो बेटों और एक बेटी के साथ पटना से दिल्ली आ गई थीं, जब उनके पति ने उन्हें छोड़ दिया था. उन्हें एक कारखाने में दिहाड़ी मज़दूर के तौर पर रखा गया, लेकिन पैसे देने से इंकार कर दिया गया, तब उनके एक दोस्त ने उन्हें सेक्स वर्कर के तौर पर काम करने के बारे में बताया. "मैं कई दिनों तक रोई कि मैं यह काम नहीं करना चाहती, लेकिन साल 2007 में एक दिन में 600 रुपए की कमाई बड़ी बात थी, जिससे 10 दिनों तक पेट पाला जा सकता था.”

अमिता, मीरा, और अन्य सेक्स वर्कर्स की कहानियों से यह स्पष्ट होता है कि यौनकर्मियों को किस तरह नकारात्मक धारणा का सामना करना पड़ता है, जो उनकी स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच को सीमित करता है. साल 2014 की एक रिपोर्ट बताती है कि इन मुश्किलों के चलते वे अस्पतालों में अपने पेशे के बारे में नहीं बतातीं. 'नेशनल नेटवर्क ऑफ़ सेक्स वर्कर्स' के तहत एडवोकेसी समूहों और सेक्स वर्कर्स समहूों द्वारा संकलित इस रिपोर्ट में कहा गया है, "महिला यौनकर्मियों को अपमानित किया जाता है और उनकी आलोचना की जाती है, उन्हें लंबे समय तक इंतज़ार करने के लिए मजबूर किया जाता है, ठीक से जांच नहीं की जाती है, एचआईवी परीक्षणों से गुज़रने के लिए मजबूर किया जाता है, निजी अस्पतालों में सेवाओं के लिए अधिक शुल्क लिया जाता है, चिकित्सा सेवाओं और प्रसव देखभाल से वंचित रखा जाता है; और उनकी गोपनीयता का उल्लंघन किया जाता है."

Left: An informative chart for sex workers. Right: At the community shelter, an illustrated handmade poster of their experiences
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Right: At the community shelter, an illustrated handmade poster of their experiences
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बाएं: यौनकर्मियों के लिए एक सूचनात्मक चार्ट. दाएं: सामुदायिक आश्रय में, महिलाओं के अनुभवों को चित्रित करता एक हस्तनिर्मित पोस्टर

अमिता के अनुभव रिपोर्ट के निष्कर्षों को दर्शाते हैं. वह कहती हैं, "केवल एचआईवी जैसी बड़ी बीमारियों के लिए या गर्भपात के लिए या अगर हम स्थानीय स्तर पर किसी बीमारी का इलाज कराते-कराते थक जाते हैं, तब हम किसी बड़े अस्पताल में जाते हैं. बाक़ी समय, हम झोला-छाप डॉक्टरों (बिना लाइसेंस वाले चिकित्सकों) के पास जाते हैं. अगर उन्हें मालूम चल जाए कि हम सेक्स वर्कर्स हैं, तो वे भी फ़ायदा उठाने की कोशिश करते हैं.”

कुसुम कहती हैं कि ऐसा कोई भी नहीं है जिससे उनका सामना होता हो और वे सम्मान के साथ पेश आते हों. जैसे ही उनके पेशे का पता चलता है, शोषण शुरू हो जाता है. अगर सेक्स नहीं, तो वे क्षणिक तुष्टि पाना चाहते हैं या हमें अपमानित करके विकृत सुख हासिल करना चाहते हैं. वह कहती हैं, "बस किसी तरह बॉडी टच (छूना) करना है उनको."

डॉक्टर सुमन कुमार विश्वास, रोहिणी स्थित एक डॉक्टर हैं, जो एक गैर-लाभकारी संगठन के ऑफ़िस में यौनकर्मियों को देखते हैं. वह कहते हैं, "नतीजतन सेक्स वर्कर्स को स्वास्थ्य सेवाओं के लिए समझौता करना पड़ता है." डॉक्टर सुमन यौनकर्मियों को कॉन्डम बांटते हैं और महिलाओं को चिकित्सकीय परामर्श देते हैं.

कोविड-19 महामारी ने यौनकर्मियों के प्रति पूर्वाग्रहों को और बढ़ा दिया है, जिससे उनके साथ होने वाला शोषण और अधिक बढ़ गया है.

एआईएनएसडबल्यू के वर्तमान अध्यक्ष पुतुल सिंह कहते हैं, "सेक्स वर्करों के साथ अछूतों जैसा बर्ताव किया जाता है. हमें राशन की लाइनों से हटा दिया जाता है या आधार कार्ड के लिए परेशान किया जाता है…हममें से एक बहन की प्रेगनेंसी का केस बिगड़ गया था, लेकिन एंबुलेंस ने कुछ किमी की थोड़ी सी दूरी के लिए 5,000 से ज़्यादा रुपए लिए बिना आने से इंकार कर दिया. हम किसी तरह उसे अस्पताल लेकर गए. लेकिन स्टाफ़ के लोगों ने उसका इलाज करने से मना कर दिया, और तरह-तरह के बहाने बनाने लगे. एक डॉक्टर उसे देखने को राज़ी हो गया, लेकिन उससे दूर ही खड़ा रहा." पुतुल कहते हैं कि हम उसे प्राइवेट क्लीनिक लेकर गए थे, लेकिन आख़िर में उसके बच्चे की मौत हो गई.

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Pinki was left with a scar after a client-turned-lover tried to slit her throat. She didn't seek medical attention for fear of bringing on a police case.
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A poster demanding social schemes and government identification documents for sex workers
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बाएं: ग्राहक से प्रेमी बन गए एक क्लाइंट ने पिंकी का गला काटने की कोशिश की थी, जिसके बाद ज़ख़्म के निशान रह गए. पुलिस केस के डर से उन्होंने डॉक्टरी सहायता नहीं ली थी. दाएं: यौनकर्मियों के लिए सामाजिक योजनाओं और सरकारी पहचान पत्रों की मांग करता एक पोस्टर

महिलाओं का कहना है कि प्राइवेट और सरकारी स्वास्थ्य सेवा के बीच किसी एक को चुनना बहुत कठिन है. अमिता कहती हैं, "एक निजी अस्पताल में हम अपनी इज़्ज़त गंवाए बिना डॉक्टर से परामर्श ले पाते हैं. लेकिन ये क्लीनिक बेहद महंगे हो सकते हैं. जैसे एक निजी क्लीनिक में अबॉर्शन (गर्भपात करवाना) की फ़ीस तीन गुना या कम से कम 15,000 रुपए तक होती है.

सरकारी अस्पतालों के साथ एक समस्या ये भी है कि वे काग़ज़ी कार्रवाई पर बहुत ज़ोर देते हैं.

पिंकी (28 वर्ष) अपने चेहरे और गर्दन से कपड़ा हटाती हैं और एक भयानक निशान दिखाती है. ग्राहक से प्रेमी बन गए एक क्लाइंट ने ईर्ष्या के चलते उनका गला काटने की कोशिश की थी. इस घटना के बाद सरकारी अस्पताल न जाने का वह कारण बताती हैं, "लाखों सवाल पूछे जाते, पहचान ज़ाहिर कर दी जाती, संभव था कि हम पर पुलिस केस भी कर दिया जाता. साथ ही, जब हममें से अधिकांश लोग गांव से अपना घर छोड़कर आते हैं, तो हम राशन कार्ड या ऐसे अन्य काग़ज़ात साथ लेकर नहीं आते."

मार्च 2007 के भारतीय महिला स्वास्थ्य चार्टर में बताया गया था कि यौनकर्मियों को "सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए ख़तरे" के रूप में देखा जाता है. एक दशक बाद, यहां तक कि देश की राजधानी में भी स्थितियां थोड़ी-बहुत ही बदली है. और महामारी ने सेक्स वर्करों को और अधिक हाशिए पर ढकेल दिया है.

अक्टूबर 2020 में, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कोविड-19 के संदर्भ में महिलाओं के अधिकारों पर एक एडवाइज़री जारी की. रिपोर्ट कहती है कि सेक्स वर्करों की स्थिति और अधिक ख़राब हुई है - उनकी आजीविका प्रभावित हुई है, जो महिलाएं एचआईवी पॉज़िटिव थीं वे एंटी-रेट्रोवायरल थेरेपी लेने में असमर्थ थीं, और पहचान से जुड़े दस्तावेज़ों के अभाव में बहुत सी यौनकर्मियों को सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिला. आख़िर में, एनएचआरसी ने यौनकर्मियों पर अपने बयान को संशोधित किया, उन्हें अनौपचारिक श्रमिकों के रूप में पहचाने जाने का सुझाव दिया, जिससे उन्हें श्रमिकों को मिलने वाले लाभ और कल्याणकारी उपायों में शामिल होने का अधिकार मिल गया. सुझाव में कहा गया कि यौनकर्मियों को मानवीय आधार पर राहत प्रदान की जाए.

At the NGO office, posters and charts provide information to the women. Condoms are also distributed there
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At the NGO office, posters and charts provide information to the women. Condoms are also distributed there
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एनजीओ ऑफ़िस में लगे पोस्टर और चार्ट, महिलाओं को जानकारी प्रदान करते हैं. वहां कॉन्डम भी बांटे जाते हैं

दिल्ली स्थित ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क की वकील स्नेहा मुखर्जी कहती हैं, "कोविड के दौरान हालात और बुरे थे, जब सरकारी अस्पतालों में यौनकर्मियों से कहा गया कि 'हम आपको हाथ नहीं लगाएंगे, क्योंकि आप वायरस फैला सकती हैं.' और उन्हें दवाओं और परीक्षणों से वंचित कर दिया गया." स्नेहा के अनुसार मानव तस्करी विधेयक, 2021 का मसौदा सभी यौनकर्मियों को तस्करी की शिकार और पीड़ित के रूप में देखता है; और एक बार क़ानून बन जाने के बाद, यौनकर्मी के रूप में काम करना और अधिक कठिन हो जाएगा. स्नेह चिंता ज़ाहिर करती हैं कि इससे सेक्स वर्करों के लिए स्वास्थ्य सेवाएं हासिल करना और मुश्किल हो जाएगा.

साल 2020 से पहले, कोई सेक्स वर्कर एक या दो ग्राहकों के ज़रिए एक दिन में 200-400 रुपए और महीने के 6,000-8,000 रुपए कमा सकती थी. कोविड-19 के चलते देशभर में लगे पहले लॉकडाउन के बाद से, महीनों तक कोई ग्राहक न होने के कारण, अधिकांश अनौपचारिक श्रमिकों की तरह, सेक्स वर्करों को लोगों की मदद और चैरिटी के भरोसे गुज़ारा करना पड़ा. तब न्यूनतम मात्रा में उपलब्ध खाने का भी हिसाब रखना पड़ रहा था, ऐसे में इलाज या दवाओं का तो सवाल ही नहीं उठता था.

एआईएनएसडब्ल्यू के कोऑर्डिनेटर अमित कुमार कहते हैं, "मार्च 2021 में तो राशन की सप्लाई भी बंद हो गई. सरकार ने यौनकर्मियों की मदद के लिए कोई योजना शुरू नहीं की. महामारी के दो साल गुज़रने वाले हैं और उन्हें अब तक ग्राहक मिलने में मुश्किल आ रही है. खाने की कमी के अलावा, आजीविका न होने के कारण और परिवार को उनके पेशे के बारे में मालूम चलने के कारण, उन्हें मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का भी सामना करना पड़ रहा है."

साल 2014 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 800,000 से अधिक सेक्स वर्कर हैं. रजनी तिवारी के मुताबिक़, दिल्ली में लगभग 30,000 सेक्स वर्कर हैं. क़रीब 30 एनजीओ उनके साथ काम करते हैं. हर एक का लक्ष्य है कि वे लगभग 1,000 सेक्स वर्करों की नियमित जांच करवा सकें. ये महिलाएं ख़ुद को दैनिक वेतनभोगी के रूप में देखती हैं. उत्तर प्रदेश के बदायूं ज़िले की 34 साल की विधवा रानी कहती हैं, "हम इसे सेक्स वर्क कहते हैं, वेश्यावृत्ति नहीं. मैं रोज़ कमाती हूं और खाती हूं. मेरी एक तय जगह है. मैं हर दिन एक या दो ग्राहक ले सकती हूं. हर एक से मुझे 200 से 300 रुपए मिल जाते हैं."

There are nearly 30,000 sex workers in Delhi, and about 30 not-for-profit organisations provide them with information and support
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दिल्ली में लगभग 30,000 यौनकर्मी हैं, और क़रीब 30 गैर-लाभकारी संगठन सक्रिय हैं, जो उन्हें सूचना और सहायता प्रदान करते हैं

आय का साधन उनकी पहचान का सिर्फ़ एक हिस्सा है. मन्जिमा भट्टाचार्या कहती हैं, "यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि सेक्स वर्कर एकल (सिंगल) महिलाएं, एकल मांएं, दलित महिलाएं, अनपढ़ औरतें, प्रवासी महिलाएं भी हैं. तमाम अन्य पहचान भी उनसे जुड़ी हुई है, जिन्होंने उनके जीवन की दिशा तय की है." मन्जिमा, मुंबई स्थित सामाजिक कार्यकर्ता और नारीवादी विचारक हैं. वह 'इंटिमेट सिटी' नामक किताब की लेखक हैं. उनकी किताब इस बारे में बात करती है कि वैश्वीकरण और प्रौद्योगिकी ने 'सेक्शुअल कॉमर्स' को कैसे प्रभावित किया है. वह कहती हैं, “बहुत से मामलों में, महिलाएं अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कई तरह के अनौपचारिक काम करती हैं: दिन के एक समय में घरेलू काम, किसी दूसरे पहर में सेक्स वर्क, और वक़्त के किसी तीसरे हिस्से में निर्माण कार्य या फ़ैक्ट्री में मजूरी.”

सेक्स वर्क के साथ तमाम अनिश्चितताएं जुड़ी हुई हैं. रानी कहती हैं, "यदि हम काम के लिए किसी के घर का इस्तेमाल करते हैं, तो वह व्यक्ति भी कमीशन लेता है. अगर ग्राहक मेरा है, तो मैं हर महीने 200 से 300 रुपए किराया देती हूं. लेकिन अगर यह दीदी [घर की मालकिन] का ग्राहक है, तो मुझे उन्हें एक निश्चित रक़म देनी पड़ती है."

वह मुझे एक ऐसे अपार्टमेंट में ले जाती हैं, जहां की मालिक, यह पुष्टि करने के बाद कि हम उसकी पहचान बताकर उन्हें ख़तरे में नहीं डालेंगे, हमें निर्धारित कमरा दिखाती हैं. इस कमरे में एक बिस्तर, एक शीशा, भगवान की तस्वीरें, और गर्मियों के लिए एक पुराना कूलर लगा हुआ है. दो युवा महिलाएं बिस्तर पर बैठकर मोबाइल चलाने में व्यस्त हैं. दो पुरुष बालकनी में सिगरेट पी रहे हैं और अपनी नज़रें फेर लेते हैं.

'दुनिया के सबसे पुराने पेशे' (यानी आर्थिक संसाधन के रूप में शरीर का इस्तेमाल) में पसंद का सवाल ऐतिहासिक रूप से जटिल रहा है, जिसका जवाब मिलना मुश्किल है. अपनी पसंद पर ज़ोर देना काफ़ी मुश्किल है, जब उसे सही या नौतिक न माना जाता हो. भट्टाचार्या कहती हैं, “कौन सी महिला किसी ऐसे इंसान के रूप में पहचान रखना चाहेगी जो सेक्स वर्क करना चाहती है? इसे यूं समझा जा सकता है कि किस तरह लड़कियों के लिए स्पष्ट रूप से यह कहना मुश्किल होता है कि उन्होंने एक प्रेमी या साथी के साथ यौन संबंध बनाने के लिए सहमति दी है, क्योंकि इससे उन्हें 'बुरी' लड़की के तौर पर देखा जाएगा."

इस बीच, रानी को नहीं मालूम कि वह अपने बढ़ते बच्चों से इस बारे में क्या कहें कि उनके खाने से लेकर घर का किराया, स्कूल की फ़ीस, और उनकी दवाओं के लिए उनकी मां पैसे कहां से लाती है.

इस स्टोरी में शामिल यौनकर्मियों के नाम, उनकी गोपनीयता बनाए रखने के लिए बदल दिए गए हैं.

पारी और काउंटरमीडिया ट्रस्ट की ओर से ग्रामीण भारत की किशोरियों तथा युवा औरतों को केंद्र में रखकर की जाने वाली रिपोर्टिंग का यह राष्ट्रव्यापी प्रोजेक्ट, ‘पापुलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया’ द्वारा समर्थित पहल का हिस्सा है, ताकि आम लोगों की बातों और उनके जीवन के अनुभवों के ज़रिए इन महत्वपूर्ण, लेकिन हाशिए पर पड़े समुदायों की स्थिति का पता लगाया जा सके.

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अनुवाद: शोभा शमी

Shalini Singh

Shalini Singh is a journalist based in Delhi, and a member of PARI's founding team.

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Illustration : Priyanka Borar

Priyanka Borar is a new media artist experimenting with technology to discover new forms of meaning and expression. She likes to design experiences for learning and play. As much as she enjoys juggling with interactive media she feels at home with the traditional pen and paper.

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Translator : Shobha Shami

Shobha Shami is a media professional based in Delhi. She has been working with national and international digital newsrooms for over a decade now. She writes on gender, mental health, cinema and other issues on various digital media platforms.

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