प्रीति यादव कहती हैं, "यह छोटी गांठ, हड्डी की तरह" सख़्त हो गई है.
एक साल से ज़्यादा का वक़्त हो गया है, जब जुलाई 2020 उन्हें पता चला था कि उनके दाहिने स्तन में मटर के दाने जितना बड़ा गांठ पनप रहा है; और इस बात को भी लगभग एक साल होने को है, जब पटना के एक कैंसर इंस्टीट्यूट के ऑन्कोलॉजिस्ट ने उन्हें बायोप्सी कराने और स्तन को सर्जरी के ज़रिए निकलवाने के लिए कहा था.
मगर प्रीति दोबारा कभी हॉस्पिटल नहीं गईं.
प्रीति अपने परिवार के साथ घर के टाइल लगे बरामदे में प्लास्टिक की एक भूरे रंग की कुर्सी पर बैठी हैं, और घर के आंगन में फूल-पौधे लगे है. वह कहती हैं, “करवा लेंगे.”
आहिस्ता से कहे गए ये शब्द परेशानी के बोझ से लदे हुए थे. उनके नज़दीकी रहे एक परिवार के कम से कम चार सदस्यों की हालिया सालों में कैंसर से मौत हो गई है, और बिहार के सारण ज़िले के सोनपुर ब्लॉक में स्थित उनके गांव में, मार्च 2020 में आई कोविड-19 महामारी से कुछ पहले के सालों में कैंसर के तमाम अन्य मामले भी दर्ज किए हैं. (उनके कहने पर गांव के नाम का उल्लेख नहीं किया गया है और यहां उनका असली नाम भी इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है.)
गांठ को ऑपरेशन करके कब निकालना है, यह 24 साल की प्रीति के लिए अकेले का फ़ैसला नहीं है. उनका परिवार बहुत जल्द उनकी शादी के लिए दूल्हा चुनने वाला है, जो बगल के गांव में रहने वाला एक युवक है और सशस्त्र बल का जवान है. वह कहती हैं, “हम शादी के बाद भी सर्जरी करवा सकते हैं, सही कहा न? डॉक्टर ने कहा है कि बच्चा होने के बाद गांठ के अपने आप घुलने की संभावना है.”
लेकिन क्या वे लड़के के परिवार को गांठ, भविष्य में होने वाली सर्जरी, और परिवार में हुए कैंसर के कई मामलों के बारे में बताएंगे? इस सवाल के जवाब में वह कहती हैं, "वही तो समझ नहीं आ रहा." इसी वजह से उनकी सर्जरी अब तक अटकी हुई है.
साल 2019 में भूविज्ञान में बीएससी की डिग्री पूरी करने वाली प्रीति के लिए, गांठ पनपने का पता चलने के बाद का समय अकेलेपन के अंधेरे से भरा दौर लेकर आया है. नवंबर, 2016 में उनके पिता को आख़िरी स्टेज का किडनी का कैंसर हो गया था, जिसके कुछ महीनों बाद उनकी मौत हो गई थी. हृदय रोग के इलाज़ से जुड़ी तमाम सुविधाओं वाले कई हॉस्पिटलों में साल 2013 से चल रहे इलाज के बावजूद, पिछली जनवरी में दिल का दौरा पड़ने से उनकी मां की मृत्यु हो गई थी. दोनों अपनी उम्र के 50वें दशक में थे. प्रीति कहती हैं, ''मैं बिल्कुल अकेली पड़ गई हूं. अगर मेरी मां ज़िंदा होती, तो वह मेरी परेशानी को समझती."
उनकी मां की मृत्यु से ठीक पहले, नई दिल्ली के ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस (अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान) की जांच में सामने आया था कि उनके परिवार में कैंसर के मामलों की वजह उनके घर के पानी की क्वालिटी से जुड़ा हो सकती है. प्रीति कहती हैं, “वहां के डॉक्टरों ने मम्मी के दिमागी तनाव के बारे में पूछा था. जब हमने उन्हें परिवार में हुई मौतों के बारे में बताया, तो उन्होंने इस बारे में कई सवाल पूछे कि हम कौन-सा पानी पीते हैं. कुछ सालों से ऐसा हो रहा है कि हमारे हैंडपंप से निकला पानी, आधे घंटे बाद पीला हो जाता है.”
रिपोर्ट्स के मुताबिक़, बिहार, भारत के उन सात राज्यों में से एक है जहां के ग्राउंडवॉटर(भूजल) में आर्सेनिक की मिलावट इतनी ज़्यादा मिलती है कि वह ख़तरे का स्तर पार चुकी है. बिहार के अलावा अन्य छह राज्य, असम, छत्तीसगढ़, झारखंड, मणिपुर, उत्तर प्रदेश, और पश्चिम बंगाल हैं. बिहार में, प्रीति के ज़िले सारण सहित 18 ज़िलों के 57 ब्लॉक में केंद्रीय भूजल बोर्ड ने ग्राउंडवॉटर में आर्सेनिक की मात्रा बहुत ज़्यादा पाई थी, जो हर एक लीटर में 0.05 मिलीग्राम से ज़्यादा थी. यह मात्रा 10 माइक्रोग्राम से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए. टास्क फ़ोर्स और राज्य सरकार की एजेंसियों के निष्कर्षों के आधार पर साल 2010 में ये दो रिपोर्ट्स तैयार की गई थीं.
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प्रीति सिर्फ़ 2 या 3 साल की थी, जब उनकी सबसे बड़ी बहन की मृत्यु हो गई थी. वह कहती हैं, “उसके पेट में हर समय बहुत ज़्यादा दर्द रहता था. पिताजी उसे कई क्लीनिकों में ले गए, लेकिन उसे बचा नहीं सके.” उस समय से ही मां काफ़ी तनाव में रहने लगी थीं.
फिर, उनके चाचा की साल 2009 में और उनकी चाची की साल 2012 में मौत हो गई. वे सभी एक साथ बड़े से घर में रहते थे. दोनों को ब्लड कैंसर हुआ था, और डॉक्टरों ने बताया था कि उन्होंने इलाज में बहुत देर कर दी है.
साल 2013 में, उन्हीं चाचा के बेटे और प्रीति के 36 साल के चचेरे भाई की भी मौत हो गई, जिनका वैशाली ज़िले से सटे हाजीपुर में इलाज चल रहा था. उन्हें भी ब्लड कैंसर था.
सालों तक बीमारी और मौत का सामना करने से बिखर चुके परिवार की ज़िम्मेदारियों का बोझ, प्रीति ने अपने सर उठा लिया. वह कहती हैं, “जब मैं 10वीं कक्षा में थी, तब मुझे लंबे समय तक घर संभालना पड़ता था, क्योंकि मां और बाद में पिताजी, दोनों बीमार हो गए थे. एक ऐसा दौर आया था, जब हर साल किसी न किसी की मृत्यु हो रही थी. या कोई गंभीर रूप से बीमार हो जाता था.
लेकिन क्या वे लड़के के परिवार को गांठ, भविष्य में होने वाली सर्जरी, और परिवार में हुए कैंसर के कई मामलों के बारे में बताएंगे? इस सवाल के जवाब में वह कहती हैं, "वही तो समझ नहीं आ रहा." इसी वजह से उनकी सर्जरी अब तक अटकी हुई है
एक बड़े और संयुक्त ज़मींदार परिवार की रसोई संभालने के चलते उनकी पढ़ाई कहीं पीछे छूट गई. जब उनके दो भाइयों में से एक की शादी हुई, तो उसकी पत्नी के घर आ जाने से प्रीति को खाना पकाने, सफ़ाई करने, और बीमारों की देखभाल करने के काम में थोड़ी राहत मिली. परिवार की मुश्किलें तब और बढ़ गईं, जब एक चचेरे भाई की पत्नी को एक ज़हरीले सांप ने काट लिया और वह लगभग मरते-मरते बची. इसके बाद, साल 2019 में खेत में हुई एक दुर्घटना में प्रीति के भाइयों में से एक की आंख गंभीर रूप से चोटिल हो गई और अगले कुछ महीनों तक उसकी लगातार देखभाल करनी पड़ी.
अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद, प्रीति बहुत निराश महसूस करने लगी. वह कहती हैं, "मायूसी थी...बहुत टेंशन था तब." जब वह भावनात्मक रूप से थोड़ा बेहतर होने लगीं, तो उन्हें अपनी गांठ का पता चला.
अपने गांव के बाक़ी लोगों की तरह, यह परिवार भी हैंडपंप से निकाले गए पानी को बिना छाने या उबाले इस्तेमाल करता था. लगभग 120-150 फ़ीट गहरा, दो दशक पुराना यह बोरवेल, उनकी सभी ज़रूरतों के लिए पानी का स्रोत रहा है - सफ़ाई-धोना, स्नान करना, पीना, खाना बनाना. प्रीति कहती हैं, "पिता के गुज़रने के बाद, हम पीने और खाना पकाने के लिए आरओ फिल्टर का पानी इस्तेमाल कर रहे हैं." तब तक, कई अध्ययनों से यह सामने आ चुका था कि ग्राउंडवॉटर में मिला आर्सेनिक ज़हर की तरह काम कर रहा है, और ज़िले के लोगों को इस प्रदूषण और इसके ख़तरों के बारे में पता चलना शुरू हो गया था. आरओ प्यूरिफ़िकेशन सिस्टम, नियमित रखरखाव के साथ, पीने के पानी से आर्सेनिक को छानने में कुछ हद तक सफल रहा है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन, साल 1958 की शुरुआत से ही इस तरफ़ इशारा करता रहा है कि आर्सेनिक से दूषित पानी के लंबे समय तक इस्तेमाल से पानी में विषाक्तता या आर्सेनिकोसिस होता है, जिससे त्वचा, मूत्राशय, किडनी या फेफड़े का कैंसर होने का ख़तरा रहता है; और साथ ही त्वचा पर धब्बे जैसी बीमारी, हथेलियों और तलवों पर कठोर पैच बनने जैसे कई त्वचा रोगों का जोख़िम बना रहता हैं. डब्ल्यूएचओ ने इस तरफ भी संकेत किया है कि गंदे पानी के इस्तेमाल से मधुमेह, उच्च रक्तचाप, और प्रजनन संबंधी परेशानियां भी झेलनी पड़ सकती हैं.
2017 और 2019 के बीच, पटना के एक प्राइवेट चैरिटेबल ट्रस्ट, महावीर कैंसर संस्थान और रिसर्च सेंटर ने अपनी ओपीडी में बिना किसी क्रम या नियम या आधार पर चुने गए 2,000 कैंसर मरीज़ों के ख़ून के नमूने लिए, और पाया कि कार्सिनोमा मरीज़ों के ख़ून में आर्सेनिक का स्तर ज़्यादा था. एक भू-स्थानिक मैप के ज़रिए सामने आता है कि गंगा किनारे के मैदानी इलाक़ों में कैंसर के प्रकार और जनसांख्यिकी के साथ, ख़ून में आर्सेनिक की मात्रा का मामला सीधे जुड़ता है.
इस रिसर्च में कई शोध-पत्रों का सह-लेखन करने वाले और संस्थान के एक वैज्ञानिक डॉ अरुण कुमार कहते हैं, “ख़ून में आर्सेनिक की ज़्यादा मात्रा वाले ज़्यादातर कैंसर मरीज़, गंगा नदी के पास के ज़िलों [इनमें सारण भी शामिल] के थे. उनके ख़ून में आर्सेनिक की बढ़ी हुई मात्रा से सीधे तौर पर पता चलता है कि आर्सेनिक, कैंसर का कारण बन रहा है, ख़ास तौर पर कार्सिनोमा का.”
'अगर मैं कुछ दिनों के लिए यहां से चली भी जाऊं, तब भी लोगों को पता चल जाएगा, यह एक छोटा सा गांव है. अगर मैं सर्जरी के लिए कुछ दिनों के लिए भी पटना चली जाती हूं, तो सबको पता चल जाएगा'
इस अध्ययन की जनवरी 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक़, "हमारे इंस्टीट्यूट ने साल 2019 में 15,000 से ज़्यादा कैंसर के मामले दर्ज किए थे. महामारी विज्ञान के आंकड़ों से पता चला है कि रिपोर्ट किए गए कैंसर के ज़्यादातर मामले उन शहरों या क़स्बों से आए थे जो गंगा नदी के पास बसे हैं. कैंसर के सबसे ज़्यादा मामले बक्सर, भोजपुर, सारण, पटना, वैशाली, समस्तीपुर, मुंगेर, बेगूसराय, भागलपुर ज़िलों में पाए गए."
एक तरफ़, सारण ज़िले में स्थित अपने गांव में रहने वाले प्रीति के परिवार ने, घर के पुरुषों और महिलाओं, दोनों को कैंसर के चलते खोया है, और वहीं दूसरी ओर अब प्रीति को ऑन्कोलॉजिस्ट के पास जाने में चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है. कैंसर को सामाजिक धब्बे की तरह देखा जाता है, ख़ासकर युवा लड़कियों के मामले में. जैसा कि प्रीति के एक भाई कहते हैं, "गांव के लोग बातें बताते हैं...परिवार को सावधान रहना होगा."
प्रीति आगे कहती हैं, “अगर मैं कुछ दिनों के लिए भी चली जाऊं, तो लोगों को पता चल जाएगा, यह एक छोटा सा गांव है. अगर मैं कुछ दिनों के लिए भी सर्जरी के लिए पटना चली जाऊं, तो सबको पता चल जाएगा. काश हमें शुरू से ही पता होता कि पानी में कैंसर है."
वह उम्मीद करती हैं कि उन्हें एक प्यार करने वाला पति मिल जाए और इस बात को लेकर चिंतित भी रहती हैं कि यह गांठ उनकी खुशियों के आड़े आ सकता है.
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"क्या वह बच्चे को अपना दूध पिला सकेंगी?"
रमुनी देवी यादव के मन में यह सवाल घूम रहा था, जब वह लगभग 20 साल की एक औरत को देख रही है, जिसकी शादी केवल छह महीने पहले हुई थी और वह पटना के एक हॉस्पिटल के उनके वार्ड में उनसे कुछ बिस्तर दूर लेटी थी. वह साल 2015 की गर्मी का सीज़न था. 58 साल की रमुनि देवी पूछती हैं, “कम से कम मेरे स्तन की सर्जरी काफ़ी उम्र बीत जाने के बाद हो रही थी. मेरे चारों बेटों के वयस्क होने के काफ़ी वक़्त बाद मुझे स्तन कैंसर हुआ. लेकिन जवान लड़कियों को यह कैसे हो जा रहा है?"
प्रीति के गांव से क़रीब 140 किलोमीटर दूर बक्सर ज़िले के सिमरी ब्लॉक के बड़का राजपुर गांव में, रमुनी यादव के पास क़रीब 50 बीघा ज़मीन (लगभग 17 एकड़) है और वह स्थानीय राजनीति में प्रभावशाली जगह रखती हैं. स्तन कैंसर को हराने के छह साल बाद, रमुनी देवी ने राजपुर कलां पंचायत (जिसके तहत उनका गांव आता है) के मुखिया के पद के लिए चुनाव लड़ने की सोची है, अगर कोरोना से हुई देरी के बाद इस साल के अंत में चुनाव होते हैं.
रमुनी केवल भोजपुरी बोलती हैं, लेकिन उनके बेटे और पति उमाशंकर यादव उनके लिए दुभाषिए का काम कर देते हैं. उमाशंकर का कहना है कि बड़का राजपुर गांव में कैंसर के बहुत सारे मामले हैं. केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक़, जिन 18 ज़िलों के 57 ब्लॉकों के ग्राउंडवॉटर में आर्सेनिक की मात्रा बहुत अधिक है, उनमें बक्सर ज़िला भी शामिल है.
अपने खेत के चारों ओर घूमते हुए, जहां इस सीज़न में कई बोरी मालदा आम और कटहल हुए हैं, रमुनी कहती हैं कि आख़िरी सर्जरी होने तक और रेडिएशन ट्रीटमंट शुरू होने तक, उनके परिवार ने उन्हें यह पता नहीं चलने दिया कि उनकी हालत कितनी गंभीर थी.
वह उत्तर प्रदेश के बनारस ज़िले में हुई पहली, असफल रह गई सर्जरी को याद करते हुए कहती हैं, "शुरुआत में, हमें पता ही नहीं था कि यह है क्या और जागरूकता की कमी की वजह से बहुत परेशानी हुई." बनारस में यादव परिवार की रिश्तेदारी थी. पहली सर्जरी में गांठ को निकाल दिया गया था, लेकिन वह फिर से पनपने लगा और दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था, जिसकी वजह से उन्हें तेज़ दर्द होता था. वह उसी साल, 2014 में बनारस के उसी क्लीनिक फिर से गईं और वही सर्जरी दोबारा की गई.
उमाशंकर कहते हैं, "लेकिन जब हम गांव में अपने लोकल डॉक्टर के क्लीनिक में पट्टी बदलवाने गए, तो उन्होंने कहा कि यह घाव खतरनाक लग रहा है." यादव परिवार ने दो और हॉस्पिटलों के चक्कर काटे, फिर 2015 के मध्य में किसी ने उन्हें पटना के महावीर कैंसर संस्थान जाने को कहा.
रमुनी कहती हैं कि महीनों अस्पताल के चक्कर लगाने और गांव से बार-बार बाहर जाने से उनका सामान्य पारिवारिक जीवन पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया. वह कहती हैं, "जब एक मां को कैंसर होता है, तो उसका असर सिर्फ़ मां के स्वास्थ्य पर ही नहीं, [घर की] हर चीज़ पर पड़ता है. उस समय मेरी केवल एक ही बहू थी, और वह बहुत मुश्किल से घर संभाल पाती थी. बाक़ी तीनों बेटों की शादी बाद में हुई.”
उनके बेटों को भी त्वचा की बीमारियां हो गई थीं, जिसके लिए वे अब हैंडपंप के गंदे पानी को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. उनका घर में 100-150 फ़ीट की गहराई पर लगा बोरवेल लगभग 25 साल पुराना है. रमुनी के कीमोथेरेपी, सर्जरी, और रेडिएशन थेरेपी से गुज़रने की वजह से, घर में हमेशा अफ़रा-तफ़री का माहौल रहता था. उनक एक बेटा अपनी सीमा सुरक्षा बल की पोस्टिंग के चलते बक्सर आता-जाता रहता था. उनका एक और बेटा, बगल के गांव में अध्यापक के तौर पर नौकरी करता था, जिसे करते हुए उसके दिन का ज़्यादातर वक़्त वहीं निकाल जाता था; घरवालों को खेती भी संभालनी होती थी.
रमुनी कहती हैं, “मेरी आख़िरी सर्जरी के बाद, मैंने इस नवविवाहित महिला को हॉस्पिटल के अपने वार्ड में देखा. मैं उसके पास गई, उसे अपना निशान दिखाया, और कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है. उसे भी स्तन कैंसर था, और मुझे यह देखकर खुशी हुई कि उसका पति उसकी इतनी अच्छी तरह से देखभाल कर रहा था; हालांकि, उनकी शादी को बस कुछ महीने ही हुए थे. डॉक्टर ने बाद में हमें बताया कि वह बच्चे को अपना दूध पिला सकती है. मुझे यह सुनकर बहुत खुशी हुई.”
उनके बेटे शिवजीत का कहना है कि बड़का राजपुर में ग्राउंडवॉटर बहुत ज़्यादा गंदा है. वह कहते हैं, “हमें स्वास्थ्य और पानी के बीच के रिश्ते का एहसास तब तक नहीं हुआ, जब तक कि हमारी अपनी मां गंभीर रूप से बीमार नहीं पड़ीं. लेकिन यहां के पानी का रंग अजीब है. साल 2007 या उसके आसपास तक तो सबकुछ ठीक था, लेकिन उसके बाद हमने देखा कि पानी का रंग पीला होता जा रहा है. अब हम ग्राउंडवॉटर का इस्तेमाल सिर्फ़ नहाने-धोने के लिए करते हैं.”
खाना पकाने और पीने के लिए, वे कुछ संगठनों द्वारा दान किए गए एक फ़िल्ट्रेशन प्लांट के पानी का इस्तेमाल करते हैं. इसका इस्तेमाल लगभग 250 परिवारों द्वारा किया जाता है, लेकिन इसे सितंबर 2020 में (यादव परिवार की ज़मीन पर) लगाया गया था, जबकि कई रिपोर्टों में बताया गया है कि यहां का ग्राउंडवॉटर कम से कम साल 1999 से ही गंदा है.
फ़िल्ट्रेशन प्लांट बहुत ज़्यादा कामयाब साबित नहीं हुए हैं. गांव के लोगों का कहना है कि गर्मियों में इसका पानी बहुत गर्म हो जाता है. शिवजीत कहते हैं, दुकानों पर 20-30 रुपए की क़ीमत पर, 20 लीटर के प्लास्टिक जार में आरओ का पानी बेचने का चलन भी आसपास के गांवों में ख़ूब बढ़ा हैं, लेकिन कोई नहीं जानता कि इस पानी में आर्सेनिक है या नहीं.
अध्ययन से पता चला है कि उत्तरी और पूर्वी भारत में नदियों के किनारे बसे ज़्यादातर आर्सेनिक प्रभावित मैदानी इलाकों से गुज़रने वाली नदियां हिमालय से निकलती हैं. गंगा के किनारे बस इलाक़ों में ज़हरीले प्रदूषण के पीछे भूगर्भीय वजहें हैं; उथले जलभृतों में ऑक्सीकरण के वजह से आर्सेनोपाइराइट जैसे अहानिकर खनिजों से आर्सेनिक निकलता है. अध्ययनों के अनुसार, खेती के लिए ग्राउंडवॉटर के ज़्यादा इस्तेमाल की वजह से जलस्तर का कम होना कुछ गांवों में बढ़ते प्रदूषण से जुड़ा हो सकता है. ये कई दूसरे कारणों की ओर भी इशारा करते हैं:
पूर्व में जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया से जुड़े रहे एसके आचार्य और अन्य विशेषज्ञों ने साल 1999 में नेचर मैगज़ीन में छ्पे एक पेपर में लिखा था, "हमारे हिसाब से तलछटी आर्सेनिक के कई और संभावित स्रोत मौजूद हैं, जिनमें राजमहल बेसिन में गोंडवाना कोयले की परतें [प्रति मिलियन पर आर्सेनिक के 200 पार्ट्स (पीपीएम)], दार्जिलिंग की हिमालय शृंखलाओं में सल्फ़ाइड की चट्टानें (इसमें 0.8% तक आर्सेनिक होता है), और गंगा के उद्गम स्थलों के आसपास के अन्य स्त्रोत शामिल हैं."
स्टडी से पता चलता है कि उथले और बहुत गहरे कुओं के पानी में आर्सेनिक कम पाया जाता है, जबकि 80 से 200 फ़ीट की गहराई तक के स्रोतों में प्रदूषण देखा गया हैं. डॉ कुमार का कहना है कि यह बात गांवों में लोगों के अनुभवों से साफ़ जुड़ती है, जहां उनका संस्थान बड़े स्तर पर अध्ययन के लिए पानी के नमूनों का टेस्ट करता रहता है; बारिश के पानी और उथले-गहरे खोदे गए कुओं का पानी आर्सेनिक से कम या बिल्कुल भी प्रदूषित नहीं होता है, जबकि गर्मी के महीनों में कई घरों में बोरवेल के पानी का रंग फ़ीका पड़ने लगता है और बदल जाता है.
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बक्सर ज़िले के बड़का राजपुर से लगभग चार किलोमीटर उत्तर दिशा में 340 घरों का एक गांव बसा हुआ है: तिलक राय का हट्टा. यहां के ज़्यादातर परिवारों के पास अपनी ज़मीन नहीं है. यहां कुछ घरों के बाहर लगे हैंडपंपों से बेहद गंदा पानी निकलता है.
प्रमुख शोधकर्ता डॉ. कुमार कहते हैं, साल 2013-14 में, महावीर कैंसर संस्थान द्वारा किए गए एक अध्ययन में इस गांव के ग्राउंडवॉटर में आर्सेनिक की अधिक मात्रा दिखी थी, ख़ासकर तिलक राय का हट्टा के पश्चिमी हिस्सों में. गांव के लोगों में आर्सेनिकोसिस के सामान्य लक्षण, "व्यापक रूप से" पाए गए थे: 28 प्रतिशत को हथेलियों और तलवों में हाइपरकेराटोसिस (घाव) था, 31 प्रतिशत को त्वचा रंजकता या मेलेनोसिस था, 57 प्रतिशत को लिवर से जुड़ी समस्याएं थीं, 86 प्रतिशत को गैस्ट्राइटिस था, और 9 प्रतिशत महिलाएं अनियमित माहवारी से जूझ रही थीं.
किरण देवी के पति इस गांव के बिच्छू का डेरा के नाम से जाने जाने वाले, ईंट और मिट्टी के घरों के एक अलग क्लस्टर में रहते थे. वह बताती हैं, "कई महीनों तक पेट दर्द झेलने के बाद, साल 2016 में उनकी मौत हो गई." परिवार उन्हें सिमरी और बक्सर में कई डॉक्टरों के पास लेकर गया, और उनके अलग-अलग इलाज भी चले. 50 साल से ज़्यादा उम्र की किरण कहती हैं, "उन्होंने कहा कि यह टीबी है. या लिवर का कैंसर.” उनके पास ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा है, लेकिन उनके पति की आमदनी का मुख्य ज़रिया दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करना था.
साल 2018 से, किरण देवी की हथेलियों पर सख़्त और फ़ीके रंग के स्पॉट पड़ गए हैं, जो पानी में आर्सेनिक की मिलावट की ओर इशारा करते हैं. "मुझे पता है कि यह पानी का असर है, लेकिन अगर मैं अपने पंप का इस्तेमाल न करूं, तो पानी के लिए कहां जाऊं?" उनका हैंडपंप उनके घर के ठीक बाहर, एक छोटे से बाड़े के पार लगा हुआ है, जहां एक बैल जुगाली कर रहा है.
वह कहती हैं कि जब मानसून का मौसम नहीं होता, (नवंबर से मई) तो पानी की क्वालिटी ज़्यादा ख़राब हो जाती है, और यह एक कप, पानी वाली चाय की तरह दिखता है. वह पूछती हैं कि, “हम खाने के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं. मैं डॉक्टर या टेस्ट के लिए पटना कैसे जा सकती हूं?” उनकी हथेलियों में बहुत खुजली होती है, और जब वह डिटर्जेंट बार को छूती हैं या जानवरों के बाड़े से गोबर उठाती हैं, तो उसमें जलन भी होती हैं.
रमुनी कहती हैं, ''महिलाओं और पानी का आपस में गहरा संबंध है, क्योंकि इन दोनों के सहारे ही घर का सारा काम होता है. इसलिए, अगर पानी ख़राब है, तो ज़ाहिर है कि महिलाओं पर इसका सबसे ज़्यादा असर पड़ेगा. उमाशंकर कहते हैं कि कैंसर को सामाजिक लांछन की देखा जाता है, इस वजह से बहुत से लोग, ख़ासकर महिलाएं इलाज से हिचकिचाती हैं, और फिर बहुत देर हो जाती है.
रमुनी को स्तन कैंसर होने का पता चलने के तुरंत बाद, गांव की आंगनबाड़ी ने पानी की क्वालिटी के बारे में लोगों को जागरूक करने की मुहिम चलाई. रमुनी मुखिया चुने जाने पर इस दिशा में और ज़्यादा काम करने की योजना बना रही है. वह कहती हैं, "हर कोई अपने घरों के लिए आरओ का पानी नहीं ख़रीद सकता और सभी महिलाएं आसानी से हॉस्पिटल नहीं जा सकती हैं. हम इस मुश्किल को दूर करने के दूसरे तरीक़े भी तलाशते रहेंगे."
पारी और काउंटरमीडिया ट्रस्ट की ओर से ग्रामीण भारत की किशोरियों तथा युवा औरतों को केंद्र में रखकर की जाने वाली रिपोर्टिंग का यह राष्ट्रव्यापी प्रोजेक्ट 'पापुलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया'; द्वारा समर्थित पहल का हिस्सा है, ताकि आम लोगों की बातों और उनके जीवन के अनुभवों के ज़रिए इन महत्वपूर्ण, लेकिन हाशिए पर पड़े समुदायों की स्थिति का पता लगाया जा सके.
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अनुवाद: नीलिमा प्रकाश