अब्दुल माजिद भट कहते हैं, “लॉकडाउन ने हमें बर्बाद कर दिया है. आख़िरी पर्यटक मेरी दुकान पर मार्च में आया था.”

श्रीनगर की डल झील में भट की तीन दुकानें हैं, जिनमें वह चमड़े का सामान और स्थानीय हस्तशिल्प से निर्मित सामान बेचते हैं, लेकिन जून माह से लॉकडाउन में हुई ढील के बावजूद उनकी दुकान पर कोई भी ग्राहक नहीं आया है. और अब इस प्रकार की स्थिति पैदा हुए एक साल से भी ज़्यादा हो चुका है, जिसकी शुरुआत 5 अगस्त, 2019 को कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने से हुई थी.

पर्यटन पर दोनों तालाबंदियों का घातक प्रभाव हुआ है, और घाटी में भट जैसे तमाम लोगों का जीवन पर्यटन से होने वाली आय पर ही निर्भर हैं.

डल झील के बटपोरा कलां क्षेत्र के 62 वर्षीय निवासी और वहां के एक सम्मानित बुज़ुर्ग, भट कहते हैं, “उस 6-7 महीने की तालाबंदी के बाद जब पर्यटन सीज़न शुरू होने ही वाला था कि कोरोना लॉकडाउन शुरू हो गया." वह लेकसाइड टूरिस्ट ट्रेडर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं, और उनका अनुमान है कि इस संगठन के लगभग 70 सदस्य हैं.

झील के पर्यटन की अर्थव्यवस्था पर निर्भर रहने वाले श्रीनगर के बहुत से लोग - शिकारा चलाने वाले, फेरीवाले, दुकानदार - भी ऐसी ही बातें बताते हैं, जिनके लिए पिछले 12 महीने, डल की पर्यटन की पत्रिकाओं में छ्पने वाली सुंदर तस्वीरों से ज़्यादा कुछ नहीं रहे. (पढ़ें: श्रीनगर के शिकारा: डल जितना ही गहरा है नुक़्सान )

उन्हीं में से एक नेहरू पार्क की 27 वर्षीय हफ़सा भट भी हैं, जिन्होंने कोरोना वायरस लॉकडाउन शुरू होने से पहले घर से ही एक छोटा व्यवसाय शुरू किया था. जम्मू-कश्मीर उद्यमिता विकास संस्थान में 24-दिवसीय प्रशिक्षण पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद, हफ़सा, जो श्रीनगर में स्कूल टीचर के बतौर भी काम करती हैं, को संस्थान से कम ब्याज़ पर 4 लाख रुपए का ऋण मिला था. वह कहती हैं, “मैंने वस्त्रों और कपड़ों का स्टॉक ख़रीदा था. मैंने उस स्टॉक में से अभी 10-20 प्रतिशत कपड़े ही बेचे थे कि लॉकडाउन की घोषणा हो गई. अब मैं क़िस्तों का भुगतान करने के लिए संघर्ष कर रही हूं."

'Just when the tourist season was to start after that shutdown, this lockdown started', says Majid Bhat, president of the Lakeside Tourist Traders Association
PHOTO • Adil Rashid
'Just when the tourist season was to start after that shutdown, this lockdown started', says Majid Bhat, president of the Lakeside Tourist Traders Association
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लेकसाइड टूरिस्ट ट्रेडर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष , माजिद भट कहते हैं, उस तालाबंदी के बाद जब पर्यटन सीज़न शुरू होने ही वाला था कि कोरोना लॉकडाउन शुरू हो गया'

नेहरू पार्क - 18 वर्ग किलोमीटर में फैले डल झील के भीतर स्थित कई द्वीपों में से एक - के उसी क्षेत्र में 70 वर्षीय अब्दुल रज्ज़ाक़ डार रहते हैं. वह श्रीनगर की बुलेवार्ड रोड के किनारे स्थित एक घाट से शिकारा चलाते हैं. वह कहते हैं, “इतनी ख़राब हालत नहीं देखी आज तक."

वह कहते हैं, “पर्यटन के व्यवसाय में जो कुछ भी बचा था उसे कोरोना लॉकडाउन ने बर्बाद कर दिया. हम पीछे की तरफ़ जा रहे हैं. पिछले साल जो हमारी हालत थी, अब उससे भी बदतर हो गई है. मेरे परिवार में चार लोग हैं, जो इस शिकारे पर निर्भर हैं. हम बर्बादी का सामना कर रहे हैं. हम एक बार में जो कुछ खाते थे उसी को अब तीन बार में खा रहे हैं. शिकारा वाले जब तक खाएंगे नहीं, तब तक शिकारा चलेगा कैसे?”

उनके बगल में बैठे, नेहरू पार्क के आबी कारपोरा मोहल्ले के 60 वर्षीय वली मोहम्मद भट कहते हैं, “पिछला एक साल हम सभी के लिए बहुत कष्टदायी रहा है. पिछले साल अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से पहले एक एडवाइज़री जारी करके उन्होंने पर्यटकों को बाहर निकाल दिया और सबकुछ बंद कर दिया. और फिर कोरोना वायरस लॉकडाउन आ गया, जिसने हमें तबाह कर दिया है.” भट, ऑल जेएंडके टैक्सी शिकारा ओनर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं, जिसमें, उनके अनुसार, डल और निगीन झीलों के 35 बड़े और छोटे घाट शामिल हैं, और 4,000 पंजीकृत शिकारा वाले हैं.

उन्होंने सामूहिक नुक़्सान का अनुमान करोड़ों में लगाया. भट के अनुसार, पीक सीज़न में उनके संघ का प्रत्येक सदस्य एक दिन में कम से कम 1,500-2,000 रुपये कमा लेता था. “शिकारा वाले चार महीने के सीज़न [अप्रैल-मई से अगस्त-सितंबर तक] के दौरान इतना कमा लेते थे कि यह उनके पूरे साल के लिए पर्याप्त होता था, लेकिन कोरोना वायरस लॉकडाउन ने इसे छीन लिया. शादी-विवाह या अन्य ख़र्च, सबकुछ इसी [पर्यटन] मौसम के दौरान अर्जित आय पर निर्भर रहता था.”

इन महीनों के नुक़्सान की भरपाई करने के लिए, कुछ शिकारावाले परिवारों ने दैनिक मज़दूरी करना शुरू कर दिया है, जैसा कि 40 साल की आयु में चल रहे अब्दुल रज्ज़ाक़ डार के दो बेटे कर रहे हैं. डार कहते हैं, “वे भी शिकारावालों के रूप में काम करते थे, लेकिन मैंने स्थिति को देखते हुए उन्हें खरपतवार की सफ़ाई के काम में शामिल होने के लिए कहा."

उनका इशारा जम्मू-कश्मीर झील और जलमार्ग विकास प्राधिकरण द्वारा किए जा रहे कार्यों की ओर है. खरपतवार की सफ़ाई के कार्य मौसमी रूप से उपलब्ध होते हैं, जब नियमित रूप से शिकारा नहीं चलने से खरपतवार उग आते हैं. खरपतवार निकालने के लिए मशीनों का भी इस्तेमाल किया जाता है और कई बार स्थानीय ठेकेदारों के माध्यम से मज़दूरों को काम पर लगाया जाता है.

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अब्दुल रज्ज़ाक़ डार (ऊपर बाएं) कहते हैं, पर्यटन के व्यवसाय में जो कुछ भी बचा था उसे कोरोना लॉकडाउन ने बर्बाद कर दिया .' वली मोहम्मद भट (ऊपर दाएं) और मोहम्मद शफ़ी शाह (नीचे बाएं) कहते हैं, पिछले साल अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से पहले एडवाइज़री जारी करके उन्होंने सभी पर्यटकों को बाहर निकाल दिया , और फिर कोरोना लॉकडाउन ने हमें तबाह कर दिया

डल झील में स्थित नेहरू पार्क के 32 वर्षीय शब्बीर अहमद भट भी जुलाई के मध्य से यही काम कर रहे हैं. वह गर्मियों में चार महीने, लद्दाख में शॉल और कश्मीरी हस्तशिल्प से निर्मित अन्य सामान बेचने वाली एक दुकान चलाते थे, जिससे वह प्रति माह लगभग 30,000 रुपए कमा लेते थे. वह सर्दियों में उसी सामान को बेचने के लिए गोवा या केरल जाते थे. जब 22 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा हुई, तो उन्हें घर लौटना पड़ा. उसके बाद कई महीनों तक बिना आजीविका के रहने के बाद, वह अपने छोटे भाई, 28 वर्षीय शौकत अहमद के साथ झील से खरपतवारी की सफ़ाई की परियोजना में शामिल हो गए.

शब्बीर कहते हैं, “हम डल झील में चार चिनार के पास से खरपतवार निकालते हैं और उन्हें सड़क के किनारे ले जाते हैं, जहां से वे उन्हें ट्रकों में लादकर ले जाते हैं. हर चक्कर के लिए हम दो लोगों को 600 रुपए का भुगतान किया जाता है, जिसमें से 200 रुपए उस बड़ी मालवाहक नाव का किराया है जिसे हम चलाते हैं. यह हम पर निर्भर करता है कि खरपतवार निकालकर कितने चक्कर लगा सकते हैं, लेकिन अक्सर कम से कम दो चक्कर लगाना ही संभव होता है. पानी से खरपतवारों को बाहर निकालने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है. हम घर से सुबह 6 बजे निकलते हैं और दोपहर 1 बजे तक वापस लौटते हैं. हम दो चक्कर लगाने की कोशिश करते हैं, ताकि कुछ पैसे कमा सकें.”

शब्बीर कहते हैं कि इससे पहले उन्होंने इतना कठिन शारीरिक श्रम कभी नहीं किया था. उनके परिवार के पास झील में द्वीपों पर कुछ भूखंड हैं, लेकिन उस पर उनके पिता, माता, और उनके एक भाई कुछ फ़सलें उगाते हैं.

शब्बीर कहते हैं, “लॉकडाउन शुरू होने के बाद, हमने लंबे समय तक कोई काम नहीं किया. जब जीविकोपार्जन का कोई विकल्प नहीं बचा, तो मैंने डल से खरपतवार निकालने का यह काम शुरू किया. हम शारीरिक श्रम वाले इस काम से ज़्यादा अपने पर्यटन व्यापार को प्राथमिकता देते हैं, क्योंकि हमने जीवन भर यही काम किया है. लेकिन इस समय चूंकि पर्यटन चालू नहीं है, इसलिए हमारे पास गुज़ारा करने के लिए यही एकमात्र विकल्प बचा था. अब यदि हम अपने परिवार का ख़र्च निकाल लेते हैं, तो यही हमारी सबसे बड़ी सफलता होगी.”

शब्बीर बताते हैं कि उनके परिवार को घर का ख़र्च आधा करना पड़ा है. “हम अपने स्टॉक [शॉल, चमड़े के बैग और जैकेट, गहने और अन्य वस्तुओं] का उपयोग नहीं कर सकते - उन्हें कोई भी हमसे नहीं ख़रीदेगा, और ये फ़िलहाल हमारे किसी काम के नहीं हैं. इसके अलावा, हम पर ऋण बहुत ज़्यादा है [विशेष रूप से उधार में ख़रीदे गए स्टॉक के चलते].”

'In Dal, except tourism, we can't do much,' says Shabbir Ahmad (sitting on the right), now working on the lake’s de-weeding project with his brother Showkat Ahmad
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'In Dal, except tourism, we can't do much,' says Shabbir Ahmad (sitting on the right), now working on the lake’s de-weeding project with his brother Showkat Ahmad
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शब्बीर अहमद (दाएं) कहते हैं, 'डल में , पर्यटन को छोड़कर , हम ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते '; वह अब अपने भाई शौकत अहमद (बाएं) के साथ झील से खरपतवार निकालने की परियोजना के तहत काम कर रहे हैं

शब्बीर चाहते हैं कि सरकार डल के द्वीपों पर रहने वाले लोगों के संघर्ष को समझे. “अगर वे यहां आकर सर्वेक्षण करें, तो यहां की कठिनाइयों को देख सकते हैं. यहां ऐसे बहुत सारे परिवार हैं जिनके पास काम नहीं है. कुछ परिवारों के सदस्य बीमार हैं या घर में कमाने वाला कोई नहीं है. यदि सरकार के लोग यहां आएं और ऐसे लोगों के लिए कुछ आर्थिक प्रबंध कर सकें, तो यह बड़ी राहत की बात होगी.”

वह बताते हैं कि श्रीनगर शहर के निवासियों और झील में रहने वालों के जीवन की स्थितियां विपरीत है, क्योंकि शहर में विकल्प इतने सीमित नहीं हैं. “डल में, पर्यटन को छोड़कर, हम ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते. ज़्यादा से ज़्यादा हम सब्ज़ियां बेच सकते हैं [नावों में, द्वीप के एक मोहल्ले से दूसरे में नौकायन करके]. हम वे काम नहीं कर सकते जो शहर के लोगों को मिलता है या सामान बेचने के लिए ठेले नहीं लगा सकते. अगर पर्यटन फिर से शुरू होता है, तो हमारे पास काम होगा; लेकिन वर्तमान में हम संघर्ष कर रहे हैं.”

नाव से सब्ज़ियां बेचना भी आसान काम नहीं है. बटपोरा कलां की बीए की एक 21 वर्षीय छात्रा अंदलीब फ़ैयाज़ बाबा कहती हैं, “मेरे पिता एक किसान हैं. उन्होंने महीनों तक कमाई नहीं की, क्योंकि वह घर से बाहर नहीं जा पा रहे थे. सभी सब्ज़ियां बर्बाद हो गई थीं, वे अपने ग्राहकों में से कुछ को बहुत थोड़ी सब्ज़ियां पहुंचा सके. इसने हमारे परिवार को बुरी तरह प्रभावित किया है, मेरे पिता अकेले कमाने वाले सदस्य हैं.” अंदलीब का छोटा भाई और दो बहनें, सभी छात्र हैं, उनकी मां एक गृहिणी हैं. “हमें स्कूल की पूरी फ़ीस, और साथ ही मेरे कॉलेज की फ़ीस भी चुकानी थी. और अगर कोई आपात स्थिति होती है, तो हमें किनारे [श्रीनगर] तक पहुंचने के लिए झील को पार करना होता है.”

जो लोग शहर में रहते हैं, लेकिन आजीविका के लिए झील के पर्यटन पर निर्भर हैं, उन्होंने भी गंभीर रूप से कठिन महीनों का सामना किया है. उन्हीं में से एक श्रीनगर के शालीमार इलाक़े के मोहम्मद शफ़ी शाह भी हैं. वह घाट से लगभग 10 किलोमीटर के दायरे में पिछले 16 वर्षों से पर्यटन सीज़न के दौरान शिकारा चलाते हैं, और अच्छे दिनों में लगभग 1,000-1,500 रुपए कमा लेते हैं. लेकिन पिछले एक साल से उनके शिकारे से सैर करने के लिए ज़्यादा पर्यटक नहीं आए हैं. वह कहते हैं, “उन्होंने जब से अनुच्छेद 370 को हटाया है, हम बेकार बैठे हुए हैं, और कोरोना वायरस लॉकडाउन के बाद हालत और भी ख़राब हो चुकी है."

वह पुनर्वास की एक कार्रवाई का ज़िक्र करते हुए कहते हैं, “मैं डल में रहता था, लेकिन सरकार ने हमें बाहर निकाल दिया. मैं शालीमार से [किसी की गाड़ी से लिफ़्ट मांगकर] रोज़ाना यहां आता हूं. सर्दियों में मैं काम के लिए बाहर जाता था [गोवा, समुद्र तटों पर हस्तशिल्प से निर्मित सामान बेचने के लिए], लेकिन लॉकडाउन के बाद 50 दिनों तक फंसा रहा और व्यापार ठप पड़ गया. मैं मई के अंत में वापस आया और एक हफ़्ते तक क्वारंटीन में रहा...”

Left: Andleeb Fayaz Baba's father has been unable to sell vegetables by boat for months. Right: The houseboats have been empty this tourist season
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Left: Andleeb Fayaz Baba's father has been unable to sell vegetables by boat for months. Right: The houseboats have been empty this tourist season
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बाएं: अंदलीब फ़ैयाज़ बाबा के पिता, महीनों तक नाव से सब्ज़ियां बेचने का काम नहीं कर पाए. दाएं: इस पर्यटन सीज़न में हाउसबोट खाली पड़े हैं

डल झील में, शिकारा वाले प्रत्येक घाट पर एक यूनियन बना लेते हैं - ये सभी ऑल जेएंडके टैक्सी शिकारा ओनर्स यूनियन के तहत आते हैं - और प्रत्येक शिकारा द्वारा अर्जित पैसे को जमा करते हैं. फिर वे आय को अपने सदस्यों के बीच समान रूप से विभाजित करते हैं. जिस घाट पर शफ़ी काम करते हैं वहां लगभग 15 शिकारे हैं.

“अगर कोई स्थानीय आता है, जो कभी-कभार ही होता है, तो हम उन्हें शिकारा में घुमाते हैं और 400-500 रुपए कमाते हैं, जो इस टैक्सी स्टैंड के 10-15 लोगों में विभाजित हो जाता है, और तब यह कमाई प्रति व्यक्ति 50 रुपए की होती है. इतने से मेरा क्या होगा? इस शिकारे के अलावा हमारे पास कोई अन्य साधन नहीं है. मेरा घर कैसे चलेगा? क्या वह बर्बाद नहीं हो जाएगा?”

शफ़ी बताते हैं कि उन्होंने अपना शिकारा टैक्सी लाइसेंस, पर्यटन विभाग को सौंप दिया था, क्योंकि उन्होंने सुना था कि सरकार प्रत्येक शिकारा वाले को तीन महीने तक 1,000 रुपए प्रति माह देगी, लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं मिला.

बुलेवार्ड रोड के उस पार, झील के अंदर, 50 वर्षीय अब्दुल रशीद बडियारी, अपने ख़ाली हाउसबोट, ‘एक्रोपोलिस’ के सामने वाले बरामदे में तकिये से टेक लगाए बैठे हैं - इस बोट में हाथ से बनी लकड़ी की दीवारें हैं, आलीशान सोफ़े रखे हैं, और छत पर पारंपरिक, अलंकृत ख़टमबंद शैली में नक्काशी की हुई है. लेकिन एक साल से यहां कोई ग्राहक नहीं आया है.

बडियारी कहते हैं, “जब से मैंने वयस्क जीवन में प्रवेश किया है, तब से हाउसबोट चला रहा हूं. मुझसे पहले मेरे पिता और दादा भी यही काम करते थे और मुझे यह नाव उनसे विरासत में मिली थी. लेकिन हमारे लिए सबकुछ बंद है; दोनों लॉकडाउन के बाद से कोई ग्राहक नहीं आया है. मेरा आख़िरी ग्राहक अनुच्छेद 370 से पहले आया था. कोरोना वायरस लॉकडाउन ने मुझे बहुत ज़्यादा प्रभावित नहीं किया, क्योंकि वैसे भी यहां कोई पर्यटक नहीं था. सब बर्बाद हो रहा है, यहां तक ​​कि मेरी यह संपत्ति भी सड़ने लगी है.”

बडियारी का पांच सदस्यीय परिवार आजीविका के लिए, हाउसबोट में पर्यटकों के ठहरने से होने वाली आय पर निर्भर था. “मैं एक रात के 3,000 रुपए चार्ज करता हूं. मेरी नाव सीज़न वाले महीनों में भरी रहती थी. फेरीवाले और अन्य लोग मेरे हाउसबोट में रहने वाले पर्यटकों को अपना सामान बेचते थे, और शिकारावाले मेरे ग्राहकों को झील के आसपास घुमाकर कमाई करते थे. उन सभी ने अब काम खो दिया है. मेरे पास जो कुछ भी बचत थी उससे मैं अपना ख़र्च चला रहा हूं, और मैंने क़र्ज़ भी लिया है.” बडियारी ने एक आदमी को अपने यहां काम पर रखा हुआ था जो हाउसबोट की देखभाल करता था, लेकिन वेतन का भुगतान करने में असमर्थ होने के कारण, उन्हें उसे चले जाने के लिए कहना पड़ा. वह कहते हैं, “भविष्य को लेकर अब कोई उम्मीद नहीं दिखती, मैं नहीं चाहता कि मेरा बेटा यह काम करे."

'Everything is in loss, even the property is rotting away,' Abdul Rashid Badyari says, referring to his ornate houseboat
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'Everything is in loss, even the property is rotting away,' Abdul Rashid Badyari says, referring to his ornate houseboat
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अब्दुल रशीद बडियारी अपने हाउसबोट के संदर्भ में कहते हैं, सब बर्बाद हो रहा है, यहां तक ​​कि मेरी यह संपत्ति भी सड़ने लगी है '

इन महीनों में, कुछ लोगों ने आजीविका के लिए जूझ रहे शिकारावालों और व्यापारियों की मदद करने की कोशिश की है; उनमें से एक अब्दुल माजिद भट ( लेकसाइड टूरिस्ट ट्रेडर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष) भी हैं. वह बताते हैं, “हमारे पास अपने एसोसिएशन के सदस्यों के लिए, आपातस्थिति के लिए लगभग 6 लाख रुपयों का ट्रस्ट था. हमने इसे उन लोगों को दे दिया जो सबसे कमज़ोर थे, ताकि वे अपना घर चला सकें.”

भट, पर्यटन के सीज़न में 10 व्यक्तियों को रोज़गार देते थे, और उनमें से प्रत्येक को 10,000-15,000 रुपए वेतन देते थे. वह कहते हैं, “मुझे उनमें से अधिकांश को निकालना पड़ा, क्योंकि मेरे पास उन्हें देने के लिए पैसे नहीं थे. मैंने अपने परिवार के साथ निर्णय लेने के बाद उनमें से कुछ को, जो बहुत ज़्यादा ग़रीब थे, अपने पास ही रखा. हम उन्हें वही खिलाते हैं जो हम ख़ुद खाते हैं. अन्यथा, मैं किसी कर्मचारी को नहीं रख सकता. पिछले पांच महीनों में मैंने कुछ स्थानीय ग्राहकों से 4,000 रुपए से कम की बिक्री की है.”

भट का कहना है कि उन्होंने अपने परिवार के गुज़ारे और क़र्ज़ चुकाने के लिए बैंक ऋण लिया है. “मुझे उस पर भी ब्याज़ देना होगा. मेरे दोनों बेटे और तीन भतीजे मेरे साथ काम करते हैं [उनकी दो बेटियां हैं; एक गृहणी है, दूसरी घर पर मदद करती है]. मेरा बेटा बीकॉम स्नातक है और मेरी अंतरात्मा ने मुझे उसे मज़दूरी के लिए भेजने की अनुमति नहीं दी, लेकिन अब स्थिति ऐसी है कि उसे भी जाना पड़ेगा.”

भट कहते हैं कि सरकार का कोई भी व्यक्ति डल झील के दुकानदारों और शिकारावालों पर ध्यान नहीं देता. “नुक़्सान का आकलन करने के लिए कोई भी नहीं आया.” उनका कहना है कि अब चूंकि लॉकडाउन हटा दिया गया है, इसलिए स्थानीय लोग आमतौर पर शहर की दुकानों पर आने लगे हैं. “लेकिन डल में कश्मीरी कला की दुकानों पर कोई नहीं आता है. डल का दुकानदार 100 प्रतिशत नुक़्सान में है.”

भट आगे कहते हैं कि जुलाई में हस्तशिल्प निदेशालय के एक अधिकारी ने उन्हें कुछ वित्तीय सहायता प्राप्त करने के लिए अपना पंजीकरण ऑनलाइन जमा करने के लिए कहा था, लेकिन कुछ भी नहीं हुआ. “तब से, हमें न तो राज्य से और न ही केंद्र सरकार से कोई उम्मीद है.” भट के अनुसार, हड़तालों और कर्फ़्यू के लंबे चक्र ने अनिश्चितता को बढ़ाया ही है. “मैंने अपने बच्चों को कहा कि डल और हमारा भविष्य बहुत अंधकारमय है...”

अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़

Adil Rashid

Adil Rashid is an independent journalist based in Srinagar, Kashmir. He has previously worked with ‘Outlook’ magazine in Delhi.

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Translator : Mohd. Qamar Tabrez
dr.qamartabrez@gmail.com

Mohd. Qamar Tabrez is the Translations Editor, Hindi/Urdu, at the People’s Archive of Rural India. He is a Delhi-based journalist, the author of two books, and was associated with newspapers like ‘Roznama Mera Watan’, ‘Rashtriya Sahara’, ‘Chauthi Duniya’ and ‘Avadhnama’. He has a degree in History from Aligarh Muslim University and a PhD from Jawaharlal Nehru University, Delhi.

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