यह स्टोरी जलवायु परिवर्तन पर आधारित पारी की उस शृंखला का हिस्सा है जिसने पर्यावरण रिपोर्टिंग की श्रेणी में साल 2019 का रामनाथ गोयनका अवॉर्ड जीता है.
काजल लता बिस्वास, चक्रवात की यादों से अब तक डरी हुई हैं. हालांकि, आइला चक्रवात को सुंदरबन से टकराए 10 साल हो चुके हैं, फिर भी 25 मई 2009 की तारीख़ उन्हें अच्छी तरह याद है.
दोपहर से पहले का समय था. काजल लता कहती हैं, “[कालिंदी] नदी का पानी गांव में घुसा और सभी घरों में भर गया." वह उस दिन अपने गांव, गोबिंदकाटी से लगभग सात किलोमीटर दूर, कुमीरमारी गांव में एक रिश्तेदार के घर पर मौजूद थीं. “हम में से 40-50 लोगों ने एक नाव में शरण ली, जिसमें हमने एक पूरा दिन और पूरी रात बिताई. हमने पेड़ों, नावों, मवेशियों, और धान को बहते देखा. रात में, हम कुछ भी नहीं देख सकते थे. माचिस की तीलियां तक भीग गई थीं. आसमान में जब बिजली चमकती थी, तभी हम कुछ देख पाते थे.”
अपने घर के बाहर बैठकर दोपहर के भोजन के लिए मछली की सफ़ाई करते हुए, 48 वर्षीय किसान, काजल लता अपनी बात को जारी रखते हुए आगे कहती हैं, “उस रात को कभी नहीं भुलाया जा सकता है. पीने के लिए एक बूंद पानी भी नहीं था. किसी तरह, मैंने एक प्लास्टिक की थैली में बारिश की कुछ बूंदें इकट्ठा कीं, जिससे मैं अपनी दोनों बेटियों और भतीजी के होंठों को गीला करती थी, जो बहुत प्यासी थीं.” वह मंज़र याद करते हुए उनकी आवाज़ कांपने लगती है.
अगली सुबह, अपने गांव तक पहुंचने के लिए उन्होंने एक नाव का सहारा लिया. फिर बाढ़ के पानी में चलते हुए अपने घर पहुंचे. काजल लता कहती हैं, “मेरी बड़ी बेटी तनुश्री, जो उस समय 17 साल की थी, जहां पानी बहुत ज़्यादा था वहां डूबते-डूबते बची. सौभाग्य से, उसने अपनी चाची की साड़ी के पल्लू को पकड़ लिया, जो खुल गया था." उनकी आंखें उस डर को बयान कर रही हैं जिसका उन्होंने तब सामना किया था.
मई 2019 में, उनका डर 'फ़ानी' चक्रवात के साथ लौट आया. इत्तेफ़ाक़ से, उनकी छोटी बेटी, 25 वर्षीय अनुश्री की शादी भी उसी समय होने वाली थी.
शादी 6 मई को तय थी. पंचायत द्वारा लाउडस्पीकर से और सरकार द्वारा रेडियो पर फ़ानी के बारे में घोषणा कुछ दिन पहले ही शुरू हुई थी. काजल लता कहती हैं, “हमारी दुर्दशा और डर की कल्पना कीजिए." वह चैन की सांस लेते हुए कहती हैं, "हम घबरा गए थे कि हवाएं और बारिश सभी तैयारियों को नष्ट कर देगी. शादी से कुछ पहले के दिनों में थोड़ी-बहुत बारिश हुई थी. लेकिन शुक्र है कि चक्रवात का असर हमारे गांव पर नहीं पड़ा."
2 मई को, भारत के मौसम विभाग ने आंध्र प्रदेश, ओडिशा (जो सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ), और पश्चिम बंगाल में फ़ानी के आने के बारे में चेतावनी जारी की थी. फानी के बारे में बात करते हुए, 80 वर्षीय किसान और रजत जुबिली गांव के पूर्व शिक्षक, प्रफुल्ल मंडल कुछ तेज़ आवाज़ में कहते हैं: “फ़ानी से सुंदरबन बाल-बाल बच गया. हवाओं की तेज़ आवाज़ हमें सुनाई दे रही थी. अगर यह (चक्रवात) हमारे गांव से टकराया होता, तो हम अपने घरों और ज़मीन सहित बर्बाद हो जाते…”
जैसा कि मंडल और काजल लता दोनों ही इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि सुंदरबन में चक्रवात आना आम बात है. पश्चिम बंगाल सरकार के आपदा प्रबंधन और नागरिक सुरक्षा विभाग ने दक्षिण और उत्तर 24 परगना, दोनों ज़िलों को चक्रवातों के कारण ‘बहुत अधिक क्षति के ख़तरे वाले क्षेत्रों’ के रूप में वर्गीकृत कर रखा है.
मंडल का गांव दक्षिण 24 परगना ज़िले के गोसाबा ब्लॉक में है, और काजल लता का गांव उत्तर 24 परगना ज़िले के हिंगलगंज ब्लॉक में है. ये दोनों, पश्चिम बंगाल में भारतीय सुंदरबन में शामिल 19 ब्लॉकों का हिस्सा हैं - उत्तर 24 परगना के 6 ब्लॉक और दक्षिण 24 परगना के 13 ब्लॉक.
भारत और बांग्लादेश में फैला, सुंदरबन एक विशाल डेल्टा है, जिसमें शायद दुनिया का सबसे बड़ा सन्निहित मैंग्रोव जंगल है, जो लगभग 10,200 वर्ग किलोमीटर में फैला है. विश्व बैंक की ‘सुंदरबन के सतत विकास के लिए लचीलेपन का निर्माण’ (बिल्डिंग रिज़िलीअन्स फ़ॉर द सस्टैनबल डेवलपमेंट ऑफ़ द सुंदरबंस) नामक 2014 की रिपोर्ट में कहा गया है, “सुंदरबन क्षेत्र दुनिया के सबसे बेहतरीन पारिस्थितिक तंत्रों में से एक है...पूरा मैनग्रोव वन क्षेत्र अपनी असाधारण जैव विविधता के लिए जाना जाता है, जिसमें लुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी कई प्रजातियां शामिल हैं, जैसे कि रॉयल बंगाल टाइगर, खारे पानी के मगरमच्छ, भारतीय अजगर, और नदियों में रहने वाली डॉल्फ़िन की कई प्रजातियां. यह भारत में पाई जाने वाली 10 प्रतिशत से अधिक स्तनपायी और 25 प्रतिशत पक्षियों की प्रजातियों का घर है.”
लगभग 4,200 वर्ग किलोमीटर में फैला भारतीय सुंदरबन लगभग 4.5 मिलियन लोगों का घर है, जिनमें से तमाम लोग ग़रीबी में जीवन व्यतीत कर रहे हैं, मामूली आजीविका के लिए संघर्ष कर रहे हैं, इलाक़े की मुश्किलों और अत्यधिक ख़राब मौसमों का सामना कर रहे हैं.
हालांकि, इस क्षेत्र में आइला के बाद कोई बड़ा चक्रवात नहीं देखा गया है, फिर भी यहां ऐसे चक्रवातों का ख़तरा हमेशा बना रहता है. पश्चिम बंगाल सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग के लिए तैयार की गई भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, खड़गपुर की 2006 की एक रिपोर्ट बताती है कि राज्य में 1891 से 2004 तक 71 चक्रवाती तूफ़ान आ चुके हैं. उस अवधि में, दक्षिण 24 परगना ज़िले का गोसाबा ब्लॉक सबसे ज़्यादा प्रभावित रहा, जिसने छह गंभीर चक्रवातों और 19 साधारण चक्रवातों का सामना किया.
प्रफुल्ल, आइला से पहले के चक्रवातों को भी याद कर सकते हैं. वह कहते हैं, “मैं 1998 के चक्रवात को नहीं भूल सकता [जिसे आज़ादी के बाद पश्चिम बंगाल का ‘सबसे प्रबल तूफ़ान’ कहा जाता है, आइला से भी ख़तरनाक, जो कि एक ‘गंभीर चक्रवाती तूफ़ान’ था], जिसकी हवाएं काफ़ी तेज़ और हिंसक थीं. इससे भी पहले, मैं 1988 के चक्रवात को याद कर सकता हूं."
कोलकाता के समुद्र विज्ञानी, डॉ. अभिजीत मित्रा 2019 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, मैंग्रोव फॉरेस्ट्स इन इंडिया: एक्सप्लोरिंग इकोसिस्टम सर्विसेज़ में लिखते हैं कि इस तूफ़ानी अतीत के बावजूद, चक्रवाती डिप्रेशन (समुद्र में उष्णकटिबंधीय मौसम की गड़बड़ी, 31-60 किलोमीटर प्रति घंटे की सीमा में, 62-82 किलोमीटर के चक्रवाती तूफ़ान की सीमा के नीचे) पिछले 10 वर्षों में निचले गंगा के डेल्टा में (जहां सुंदरबन स्थित हैं) 2.5 गुना बढ़ गया है. वह कहते हैं, “इसका मतलब है कि चक्रवात अब अक्सर आते हैं."
कई अन्य अध्ययनों से पता चलता है कि सुंदरबन के आसपास बंगाल की खाड़ी में चक्रवातों की घटनाओं में वृद्धि हुई है. 'डाईवर्सिटी' पत्रिका में 2015 में प्रकाशित एक अध्ययन, 1881 और 2001 के बीच हुई इस वृद्धि को 26 प्रतिशत बताता है. और मई, अक्टूबर, और नवंबर के दौरान बंगाल की खाड़ी में चक्रवातों पर 1877 से 2005 तक के उपलब्ध आंकड़ों का उपयोग करते हुए, 2007 का एक अध्ययन बताता है कि पिछले 129 वर्षों में इन गंभीर चक्रवाती महीनों के दौरान यहां तेज़ चक्रवाती तूफ़ानों में काफ़ी वृद्धि हुई है.
इसका कारण एक तरह से समुद्र की सतह के तापमान में वृद्धि को बताया गया है (जर्नल ऑफ़ अर्थ साइंस ऐंड क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित एक लेख में यह बात कही गई है). ये तापमान भारतीय सुंदरबन में 1980 से 2007 तक प्रति दशक 0.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ा, जो कि तापमान वृद्धि की विश्व स्तरीय प्रति दशक 0.06 डिग्री सेल्सियस की दर से अधिक है.
इसके कई भयावह नतीजे सामने आए हैं. कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ़ ओशनोग्राफ़िक स्टडीज़ की प्रोफ़ेसर सुगता हाज़रा कहती हैं, “सुंदरबन ने पिछली बार 2009 में एक बड़े चक्रवात का सामना किया था. बंगाल की उत्तरी खाड़ी में आने वाले चक्रवातों से बार-बार जलभराव और तटबंध टूटने के कारण इस क्षेत्र को नुक़्सान उठाना पड़ा है.”
विश्व बैंक की रिपोर्ट कहती है, तटबंध “चक्रवाती तूफ़ानों और समुद्र तल में वृद्धि के ख़िलाफ़ रक्षा की प्रणालियों के रूप में सुंदरबन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. डेल्टा के धंसने, समुद्र तल बढ़ने, और जलवायु परिवर्तन के रूप में चक्रवात की तीव्रता में वृद्धि से लोगों और उनके खेतों की उत्पादकता के लिए ख़तरा पैदा हो गया है और 19वीं सदी में बनाए गए 3,500 किलोमीटर के तटबंधों के क्षय से उन्हें काफ़ी नुक़्सान पहुंचा है…”
2011 के वर्ल्ड वाइल्डलाइफ़ फ़ंड के एक शोधपत्र का कहना है कि सुंदरबन में सागर द्वीप की वेधशाला में मापा गया 2002-2009 का सापेक्षिक औसत समुद्र तल 12 मिमी प्रति वर्ष या 25 वर्ष के लिए 8 मिमी प्रति वर्ष की दर से बढ़ा.
तापन (वार्मिंग) और इसके चलते समुद्र तल में वृद्धि भी मैंग्रोव को प्रभावित कर रही है. ये जंगल चक्रवातों और कटाव से तटीय क्षेत्रों की रक्षा करने में मदद करते हैं, मछलियों और अन्य प्रजातियों के लिए प्रजनन क्षेत्र के रूप में काम करते हैं, और बंगाल टाइगर का निवास स्थान भी हैं. जादवपुर यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ ओशनोग्राफ़िक स्टडीज़ द्वारा 2010 का एक शोधपत्र, जिसका शीर्षक है टेम्पोरल चेंज डिटेक्शन (2001-2008) स्टडी ऑफ़ सुंदरबन का कहना है कि समुद्र तल में वृद्धि और चक्रवात, जंगल के रक़बे को कम करके सुंदरबन के मैंग्रोव के स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहे हैं.
रजत जुबिली गांव के एक मछुआरे, अर्जुन मंडल, सुंदरबन में मैंग्रोव के महत्व के बारे में गहराई से जानते थे. उन्होंने सुंदरबन रूरल डेवलपमेंट सोसायटी नामक एनजीओ के साथ काम किया. उन्होंने मई 2019 में मुझसे कहा था, “सभी ने जलवायु परिवर्तन के बारे में सुना है, लेकिन यह हमें कैसे प्रभावित कर रहा है? हमें इसके बारे में और जानने की ज़रूरत है."
29 जून, 2019 को एक बाघ, अर्जुन को उस समय उठा ले गया, जब वह पीरखली जंगल में केकड़े पकड़ रहे थे. सुंदरबन में बाघ लंबे समय से मनुष्यों पर हमला करते रहे हैं; इन हमलों की ये बढ़ती घटनाएं कम से कम आंशिक रूप से, समुद्र तल के बढ़ने से वन भूमि के क्षरण के कारण हो रही हैं, जिसकी वजह से ये बाघ इंसानों की बस्तियों के और क़रीब आते जा रहे हैं.
इस क्षेत्र में बार-बार चक्रवातों के आने से पानी के लवणता के स्तर में भी वृद्धि हुई है, विशेष रूप से केंद्रीय सुंदरबन में, जहां गोसाबा स्थित है. विश्व बैंक की रिपोर्ट में कहा गया है, “…समुद्र तल में वृद्धि के साथ-साथ डेल्टा में मीठे पानी के प्रवाह में कमी के (आंशिक) कारण, लवणता में अत्यधिक वृद्धि का पारिस्थितिक तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है."
डॉ. मित्रा द्वारा सह-लिखित एक शोधपत्र सुंदरबन के पानी को ‘अत्यधिक खारा’ बताता है. डॉ. मित्रा कहते हैं, “सुंदरबन के मध्य भाग में समुद्री जलस्तर बढ़ने के कारण पानी का खारापन बढ़ गया है. यह स्पष्ट रूप से जलवायु परिवर्तन से जुड़ा हुआ है."
अन्य शोधकर्ताओं ने लिखा है कि बिद्याधरी नदी का गाद, हिमालय से ताज़े पानी के प्रवाह को मध्य और पूर्वी सुंदरबन तक आने से रोकता है. शोधकर्ताओं ने भूमि की कटाई, खेती, नालों के कीचड़ का जमाव, और मछली पालन के कचरे को गाद के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है. 1975 में फरक्का बैराज का निर्माण भी (पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले में, गंगा पर बना) केंद्रीय सुंदरबन की बढ़ती लवणता का एक कारक बना.
रजत जुबिली रहने वाला मंडल परिवार उच्च लवणता के प्रभावों को जानता है - उनके पास आइला के बाद तीन साल तक, बेचने के लिए चावल नहीं था. चावल बेचने से होने वाली 10,000-12,000 रुपए की उनकी वार्षिक आय का सफ़ाया हो गया था. प्रफुल्ल याद करते हैं, “चावल की खेती बंद हो जाने से पूरा गांव खाली हो गया, क्योंकि यहां के पुरुष काम की तलाश में तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात, और महाराष्ट्र चले गए, जहां वे कारखानों या निर्माण स्थलों पर काम करने लगे."
राज्य भर में, आइला ने 2 लाख हेक्टेयर से अधिक फ़सली क्षेत्र और 60 लाख से अधिक लोगों को प्रभावित किया, 137 लोगों की जान गई और 10 लाख से अधिक घर तबाह हुए. प्रफुल्ल कहते हैं, “मेरे गांव में ऐसा कोई भी नहीं था जिसे नुक़्सान न हुआ हो. मेरा घर और पूरी फ़सल नष्ट हो गई. मैंने 14 बकरियों को खो दिया और तीन साल तक धान की खेती नहीं कर सका. सबकुछ शून्य से शुरू करना पड़ा. वे कठिन वर्ष थे. मैंने जीवनयापन के लिए बढ़ईगीरी और अन्य छोटे-मोटे काम किए.”
आइला के कारण लवणता बढ़ने के बाद, काजल लता के परिवार को भी अपनी 23 बीघा (7.6 एकड़) ज़मीन में से छह बीघा ज़मीन बेचनी पड़ी. वह कहती हैं, “दो साल तक घास का एक पत्ता भी नहीं उगा, क्योंकि मिट्टी काफ़ी नमकीन हो चुकी थी. धान भी नहीं उग सकता था. धीरे-धीरे, सरसो, गोभी, फूलगोभी, और लौकी जैसी सब्ज़ियां फिर से उग रही हैं, जो हमारी खपत के लिए पर्याप्त हैं, लेकिन बेचने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. हमारे पास एक तालाब भी था जिसमें अलग-अलग क़िस्म की मछलियां होती थीं, जैसे कि शोल, मागुर, रोहु; और हम उन्हें बेचकर एक साल में 25,000-30,000 रुपए कमा पाते थे. लेकिन आइला के बाद, पानी पूरी तरह से नमकीन हो गया, इसलिए अब कोई मछली नहीं बची है.”
2016 में जर्नल ऑफ़ एक्सपेरिमेंटल बायोलॉजी एंड एग्रीकल्चरल साइंसेज़ में छपे एक लेख के अनुवार, आइला के कारण मिट्टी का क्षरण हुआ - उच्च लवणता और उच्च क्षारीयता सहित - जिसके नतीजन उत्तर और दक्षिण 24 परगना के अधिकांश हिस्सों में धान ठीक से नहीं उगा. पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चलता है कि धान को फिर से उगाने के लिए, फॉस्फेट और पोटाश आधारित उर्वरक का उपयोग, अनुशंसित स्तरों से ज़्यादा करना पड़ेगा.
प्रफुल्ल के 48 वर्षीय पुत्र, प्रबीर मंडल कहते हैं, “आइला के बाद, उर्वरक का उपयोग बढ़ गया है. केवल तभी हम आवश्यक उपज प्राप्त कर पाएंगे. यह खाने के लिए स्वास्थ्यवर्धक नहीं है, फिर भी हमें इसे खाना पड़ेगा. बचपन में हम जो चावल खाते थे वह मुझे अब भी याद है. आप उसे वैसे ही खा सकते थे जैसा कि वह होता था. अब, इसे सब्ज़ियों के साथ खाने पर भी अजीब सा लगता है.”
उनके पिता के पास 13 बीघा (4.29 एकड़) ज़मीन है, जिसमें प्रति बीघा 9 बस्ता चावल पैदा होता है - एक बस्ता 60 किलो के बराबर होता है. प्रबीर कहते हैं, “धान की बुआई, कटाई, और ढुलाई के साथ-साथ खाद की लागत जुड़ने का मतलब होता है कि हमने जो ख़र्च किया है उस पर हमारी कमाई बहुत कम होती है."
2018 के एक शोधपत्र के अनुसार, आइला के बाद सुंदरबन में धान की पैदावार आधा रह गई है - प्रति 1.6 हेक्टेयर पर 64-80 क्विंटल से घटकर 32-40 क्विंटल. प्रबीर का कहना है कि हालांकि, धान का उत्पादन अब आइला से पहले के स्तर पर आ गया है, लेकिन उनका परिवार और गांव के अन्य लोग जून से सितंबर तक पूरी तरह से वर्षा पर निर्भर रहते हैं.
और यह वर्षा अविश्वसनीय हो गई है. प्रो. हाज़रा कहती हैं, “समुद्र के जलस्तर में तीव्र वृद्धि और मानसून में देरी और बारिश की कमी, जलवायु परिवर्तन के दीर्घकालिक प्रभाव हैं."
कोलकाता के स्कूल ऑफ़ ओशनोग्राफ़िक स्टडीज़ में चल रहे एक शोध के अनुसार, बंगाल की उत्तरी खाड़ी (जहां सुंदरबन स्थित है) में पिछले दो दशकों से एक दिन में 100 मिलीमीटर से अधिक वर्षा अब अक्सर हो रही है. प्रो. हाज़रा बताती हैं कि बुआई के मौसम में मानसून की बारिश अक्सर कम होती है, जैसा कि इस साल हुआ - 4 सितंबर तक, दक्षिण 24 परगना में लगभग 307 मिलीमीटर कम और उत्तर पूर्वी परगना में लगभग 157 मिमी कम बारिश हुई.
ऐसा सिर्फ़ इसी साल नहीं हुआ है - सुंदरबन में पिछले कुछ सालों से लगातार कम या ज़्यादा बारिश हो रही है. दक्षिण 24 परगना में जून से सितंबर तक मानसून की सामान्य बारिश 1552.6 मिमी रही. ज़िले के 2012-2017 के मानसून के आंकड़ों से पता चलता है कि छह में से चार वर्षों में वर्षा कम हुई थी, जिसमें से सबसे कम वर्षा 2017 (1173.3 मिमी) और 2012 में (1130.4 मिमी) हुई.
उत्तर 24 परगना में इसका उल्टा हुआ है: यानी अधिक वर्षा. यहां जून से सितंबर तक 1172.8 मिमी बारिश होती है. 2012-2017 के मानसून के आंकड़ों से पता चलता है कि इन छह वर्षों में से चार में वर्षा साधारण से ज़्यादा हुई थी - और 2015 में सबसे ज़्यादा, यानी 1428 मिमी बारिश हुई.
काजल लता कहती हैं, “असली परेशानी बेमौसम की बारिश है. इस साल फरवरी में बहुत बारिश हुई, मानसून की बारिश की तरह. यहां तक कि बुज़ुर्गों का भी कहना था कि उन्हें ऐसा कोई समय याद नहीं है जब फरवरी में इतनी बारिश हुई हो.” उनका परिवार धान की खेती पर आश्रित है, जिसकी बुआई जून-जुलाई में और कटाई नवंबर-दिसंबर में होती है. “धान की खेती पूरी तरह से वर्षा पर निर्भर है. अगर बारिश नहीं हुई, तो चावल नहीं उगेगा.”
वह कहती हैं कि पिछले चार या पांच वर्षों से, उनके गांव में मानसून के महीनों के अलावा, नवंबर-दिसंबर में भी बारिश हो रही है. इन महीनों के दौरान जो कुछ बारिश आमतौर पर यहां होती है उसकी तीव्रता धान की फ़सल को नुक़्सान पहुंचा सकती है. “या तो ज़रूरत होने पर बारिश नहीं होती या अत्यधिक बेमौसम बरसात होती है. इससे फ़सल नष्ट हो रही है. हर साल हमें लगता है कि इस बार हद से ज़्यादा [बेमौसम] बारिश नहीं होगी. लेकिन बहुत ज़्यादा बारिश हो जाती है और फ़सल पूरी तरह से नष्ट हो जाती है. इसीलिए हमारे यहां कहावत है, ‘ आशाय मोरे चासा ’ [‘उम्मीद ही किसान का क़त्ल कर देती है’].”
रजत जुबिली गांव के रहवासी प्रबीर मंडल भी चिंतित हैं. “जून और जुलाई के दौरान, [मेरे गांव में] कोई बारिश नहीं हुई. धान के कुछ पत्ते सूख गए. शुक्र है कि [अगस्त में] बारिश आ गई. लेकिन क्या यह काफ़ी होगा? अगर बहुत ज़्यादा बारिश हो जाए और फ़सल डूब जाए, तब क्या होगा?”
स्वास्थ्यकर्मी (उनके पास वैकल्पिक चिकित्सा में बीए की डिग्री है) के तौर पर प्रबीर कहते हैं कि उनके पास आने वाले रोगी भी अक्सर गर्मी की शिकायत करते हैं. वह बताते हैं, “कई लोगों को अब लू लग जाती है. यह किसी भी समय लग सकती है और घातक हो सकती है."
समुद्र तल के बढ़ते तापमान के अलावा सुंदरबन में भूमि का तापमान भी बढ़ रहा है. न्यूयॉर्क टाइम्स के एक इंटरैक्टिव पोर्टल पर जलवायु और ग्लोबल वॉर्मिंग के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 1960 में यहां एक साल में 32 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक तापमान वाले जहां 180 दिन हुआ करते थे, वहीं 2017 में ऐसे दिनों की संख्या बढ़कर 188 हो गई. ऐसे दिनों की संख्या सदी के अंत तक 213 से 258 तक हो सकती है.
बढ़ती गर्मी, चक्रवात, अनिश्चित वर्षा, लवणता, लुप्त हो रहे मैंग्रोव इत्यादि से बार-बार लड़ते हुए, सुंदरबन के निवासी हमेशा अनिश्चितता की स्थिति में रहते हैं. कई तूफ़ानों और चक्रवातों के साक्षी रह चुके प्रफुल्ल मंडल चिंता ज़ाहिर करते हैं: “कौन जानता है कि आगे क्या होगा?”
पारी का जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित राष्ट्रव्यापी रिपोर्टिंग का प्रोजेक्ट, यूएनडीपी समर्थित उस पहल का एक हिस्सा है जिसके तहत आम अवाम और उनके जीवन के अनुभवों के ज़रिए पर्यावरण में हो रहे इन बदलावों को दर्ज किया जाता है.
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अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़